बुधवार, 29 अक्तूबर 2008

लाउड स्पीकर का प्रयोग कितना उपयोगी कितना घातक

लाउड स्पीकर का प्रयोग कितना उपयोगी कितना घातक

निर्मल रानी 163011, महावीर नगर, अम्बाला शहर,हरियाणा

       नि:सन्देह विज्ञान  ने अब तक जितने भी आविष्कार किये हैं उन्हें जहां अनेकों क्षेत्रों में 'वरदान' स्वरूप देखा जाता है वहीं इसके नकारात्मक परिणामों  का विश्लेषण करने के बाद  विशेषक इन्हीं वैज्ञानिक उपलब्धियों  को  'अभिशाप' की संज्ञा देने से भी नहीं चूकते। इसी बात को इस पहलू से भी देखा जा सकता है कि जिस मनुष्य  ने अपनी किसी वैज्ञानिक खोज द्वारा कुछ ऐसा कर दिखाया जिससे कि मानवता को लाभ हुआ तो इसे एक वरदान  के रूप में  देखा गया और जब मनुष्य द्वारा की गई इसी खोज का स्वयं मनुष्य द्वारा ही दुरूपयोग  किया जाने लगा और  यही वरदान रूपी आविष्कार  मानवता के लिए हानिकारक नंजर आया तो इसी उपलब्धि को अभिशाप अथवा घातक वैज्ञानिक उपलब्धि स्वीकार किया जाने लगा।

              विज्ञान की एक ऐसी ही कांफी पुरानी खोज है लाउडस्पीकर  अथवा 'ध्वनि विस्तारक यंत्र'। बेशक इसके तमाम लाभ हैं तथा अनेकों स्थानों पर इसका सदुपयोग होते देखा जा सकता है। देश विदेश में आयोजित होने वाले बड़े से बड़े आयोजनों में दूर दराज तक फैले हाट एवं मेला क्षेत्रों में, जलसे जुलुसों में तथा बड़े से बड़े  समागम  को सम्बोधित करने में, रेलवे, हवाई अड्डों, बन्दरगाहों, बस अड्डों आदि सार्वजनिक  स्थलों  पर यात्रियों, आम लोगों अथवा अपने विभागीय कर्मचारियों को तांजातरीन सूचना व दिशा निर्देश  देने में , स्कूल, कॉलेज, बड़े-बड़े होटलों, पार्कि ग, रेड लाईट चौराहों, धर्म स्थलों, खेल कूद स्टेडियम, रैली आदि  ऐसे तमाम स्थान व अवसर  होते हैं जहां लाउडस्पीकर के प्रयोग का लाभ आम लोगों द्वारा एक आवश्यकता के रूप में उठाया जाता है।  परन्तु जब यही यंत्र  परम्परा, रूढ़ीवाद, फैशन, शोरशराबा, दुकानदारी तथा विज्ञापन आदि का माध्यम मात्र बन जाए तो यही लाउडस्पीकर समाज के लिए प्राय: इतना बड़ा सिर दर्द साबित होने लगता है कि 'अभिशाप' जैसा शब्द भी उसके लिए कांफी नहीं कहा जा सकता।

              लाउडस्पीकर की गणना आज वैज्ञानिक अविष्कार की उस श्रेणी में की जाने लगी है जो आज पूरी मानवता को हर समय नुंकसान पहुंचाने पर तुला है। 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस में हिन्दुत्ववादी नेताओं द्वारा इसी लाउड स्पीकर के बल पर रामभक्तों को उकसाकर भारतीय लोकतंत्र में घटित होने वाली एक शर्मनाक इबारत लिखी गई। बताया जाता है कि 2002 में गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन पर धावा बोलने के लिये जब असामाजिक तत्वाें की भीड़ को इक्ट्ठा करने का नारा बुलन्द किया गया उस समय गोधरा स्टेशन के समीप एक धर्म स्थान पर लगे ध्वनि विस्तारक यंत्र का खुलकर प्रयोग किया गया। आरोप है कि इसी माध्यम से तमाम उत्तेजना पूर्ण बातें लोगों तक पहुंचाकर उन्हें ट्रेन पर धावा बोलने कि लिये उकसाया गया। देश  के दंगा ग्रसित क्षेत्रों में तनावपूर्ण क्षणों में यही यंत्र जलती आग में घी डालने का काम उस समय करता है जब इसी के द्वारा एक धर्मस्थल से हर-हर महादेव की आवांजें  गूंजने लगती हैं तो दूसरे धार्मिक स्थानों से नार-ए-तकबीर अल्लाह-हो-अकबर की सदाएं बुलंद होनी शुरू हो जाती है। इस प्रकार  इस लाउडस्पीकर की 'कृपा' से ही दोनों प्रतिद्वंदी समुदाय के लोग आमने -सामने हो जाते हैं। उपरोक्त उदाहरण  कोई कोरी कल्पना या मात्र काल्पनिक उदाहरण नहीं बल्कि ऐसी सच्चाई है जिससे देश का कोई भी नागरिक इंकार नहीं कर सकता। साम्प्रदायिक दंगों की शुरूआत करने तथा उसे हवा देने में तो इसका प्रयोग होता ही है, इसके अलावा साम्प्रदायिक तनाव फैलाने के समय जब किसी भी सम्प्रदाय विशेष का धर्मगुरू अपने विध्वंसक कौशल के साथ दहाड़  रहा होता

है। तथा अपने सम्प्रदाय में  उत्तेजना का वातावरण पैदा कर रहा होता है। उस समय भी इस यंत्र की ही अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

              मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारों आदि धर्मस्थलों में सुबह-शाम और कहीं कहीं तो   अधिकांश समय तक लाउडस्पीकर द्वारा ध्वनि प्रदूषण फैलाते रहना तो आम बात है। इस यंत्र के प्रयोग का उद्देश्य केवल एक ही होता है कि व्यक्ति विशेष की आवाज को इस यंत्र के माध्यम से अधिक से अधिक दूरी तक तथा अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाया जा सके। क्या यह एक सच्चाई नहीं है कि जिन क्षेत्रों में इन यंत्रों का प्रयोग धर्मस्थानों के नाम पर किया जा रहा है उस क्षेत्र में तमाम स्कूल व कॉलेज के ऐसे बच्चे भी रहते हैं जिनकी पढ़ाई लिखाई इस यंत्र के चलते प्रभावित होती है। विशेषकर परीक्षा के दिनों में जबकि परीक्षार्थी प्रात:काल उठकर परीक्षा की तैयारी करना चाहते हैं, उसी समय हमारे धार्मिक पेशवा लाउडस्पीकर पर भजन आदि की धार्मिक कैसेट चला देते हैं। भले ही वे टेप चलाकर स्वयं भी एक नींद क्यों न सो जाते हों। क्या इस प्रकार का निरर्थक शोर शराबा हमारे छात्रों, समाज के बुजुर्गों और बीमार लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं है? ब्रह्म मुहूर्त का वातावरण सैर करने के लिए इसी वजह से उपयुक्त बताया गया है क्योंकि इस समय का वातावरण हर प्रकार के प्रदूषण  से पूरी तरह मुक्त होता है। अंफसोस की बात है कि धर्मस्थानों द्वारा लाउडस्पीकर के अंधाधुंध उपयोग ने देश के अधिकांश आबादी वाले क्षेत्रों में विशेषकर नगरों में इस ंकद्र ध्वनि प्रदूषण फैला रखा है कि प्रात: काल की सैर से होने वाले स्वास्थ्य लाभ का अर्थ ही समाप्त होता जा रहा है। तमाम धर्म स्थान तो ऐसे भी  देखे जा सकते हैं जिनके द्वारा इस यंत्र से नाजायंज एवं हद से ंज्यादा प्रयोग से दु:खी होकर उनके पडाेसियों द्वारा बांकायदा प्रशासन से शिकायतें की जा चुकी हैं। इस मामले से जुड़ी एक और त्रासदी यह भी है कि यदि कोई व्यक्ति किसी धर्मस्थल पर लाउडस्पीकर के माध्यम से कथित धर्माधिकारी  द्वारा चलाई जा रही इस कष्ट दायक गतिविधि के विरोध में आवांज उठाता है या जनहित में उसे बंद करने को या उसकी आवांज धीमी करने को कहता है तो बिना समय गंवाये हुए वह धर्म का कथित प्रचारक उसी व्यक्ति पर धर्म विरोधी या नास्तिक होने जैसा कोई भी आरोप मढ़ देता है।

              देश का भविष्य तथा समाज का विकास दरअसल बच्चों की शिक्षा से जुड़ा है। बच्चों, बुंजुर्गों, बीमार लोगों के स्वास्थ्य, उनकी देखभाल के लिए वातावरण का शांत और शुध्द होना अत्यन्त ंजरूरी है। यदि इस यंत्र के प्रयोग से समाज का एक भी वर्ग दु:खी व प्रभावित है तो ऐसे  धर्मप्रचार  से आंखिर क्या लाभ? कौन सा धर्म इस बात के लिए प्रोत्साहित करता है कि आप दूसरों की छाती पर मूंग दर कर अपने धर्म के प्रचार की आड़ में अपनी दुकानदारी चलायें तथा छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ करें? ंफिल्मी गानों की धुनों पर भजन पढ़े जा रहे हैं, राम राम एक से लेकर राम-राम दो तीन और यह सिलसिला राम-राम 108 तक पहुंचता है। आंखिर  लाउडस्पीकर के द्वारा राम नाम की माला जपने, शब्बेदारी करने, मीलाद या उर्स मनाने से दूर दरांज के सुनने वालोंको क्या लाभ?

              इस सम्बंध में दरअसल राष्ट्रीय स्तर पर एक नीति बनाये जाने की ंजरूरत है। देश के प्राचीन एवं  ऐतिहासिक वे धर्मस्थान जहां कि पूरे वर्ष दिन-रात लोगों का आना जाना लगा रहता है, उन्हें इस श्रेणी से अलग कर शेष धर्मस्थलों को विशेषकर गली-मोहल्लों और घनी आबादी के मध्य बने और दिन प्रतिदिन नये बनते जा रहे धर्म स्थानों पर प्रयोग होने वाले लाउडस्पीकर पर पूरी पाबंदी लगाई जाए। जहां -जहां ंजरूरी हो वहां यूनिट हॉर्न या टम्पर हॉर्न के बजाये स्पीकर बाक्स का प्रयोग किये  जाने की छूट दी जाये। बाक्स का प्रयोग भी इस प्रकार होना चाहिए कि उसका मुंह उसी धर्म स्थल के भीतरी भाग की ओर हो न कि किसी पड़ोसी के सिर पर रखकर उसका प्रयोग किया जाये।

              यदि प्रगति की राह पर देश को ले जाना है तो हमें समाज की तरक्ंक़ी के उपाय करने होंगे। इस प्रयास को उन्हीं उपायों में से एक अहम प्रयास के रूप में देखते हुए हमें पूरी तरह जागरूक होना होगा। हमें अंध विश्वास के चंगुल से मुक्ति पानी होगी तथा वास्तविकता में जीते हुए ऐसी घटिया एवं हानिकारक परम्पराओं को ठुकराना होगा। लाउड स्पीकर का निरर्थक प्रयोग करने वाले लोगों को भी यह महसूस करना चाहिए कि उनके द्वारा समाज को लाउड स्पीकर के प्रयोग से जो कुछ दिया जा रहा है वह समाज के लिए उपयोगी कम है, घातक अधिक। अत: इसे एक विडम्बना स्वीकार करना चाहिए तथा जहां तक हो सके, इससे परहेंज किया जाना चहिए।

निर्मल रानी

 

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