शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

एक वैज्ञानिक खोज पर : चन्द्रयान-1

एक वैज्ञानिक खोज पर : चन्द्रयान-1

गायत्री चन्‍द्रशेखर

       भारत के प्रथम चन्द्रमा मिशन का उद्देश्य मानव रहित अंतरिक्ष यान-चन्द्रयान-1 को चन्द्रमा की कक्षा में पहुंचाना है। यह धरती से 3,84,000 किलोमीटर और चांद की सतह से 100 किलोमीटर की कक्षीय ऊंचाई पर पहुंचेगा।

       386 करोड़ रुपये की लागत से अंजाम दिए जा रहे इस मिशन के अंतर्गत धरती की कक्षा से परे धरती के एकमात्र प्राकृतिक उपग्रह का अध्ययन किया जायेगा। इसके लिए यान पर ग्यारह उपकरण लगाए गए हैं। अपने दो वर्ष के कार्यकाल के दौरान यह यान विविध विषयों के बारे में भारी यात्रा में आंकड़े भेजेगा। इस खोज का लक्ष्य चन्द्रमा की उत्पत्ति, विकास, भौतिक और रासायनिक विशेषताओं, वहां मौजूद हीलियम-3, यूरेनियम और थोरियम जैसे स्वच्छ ईंधन, मैग्नेशियम और टिटैनियम जैसी खनिज सम्पदा और सर्वाधिक आकर्षक जल-हिम (वाटर आइस), जो चन्द्रमा के धुवों पर विद्यमान होने का अनुमान है, का पता लगाना है।

       पहली बार उठाए गए इस ठोस कदम के ज़रिए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) एक वैज्ञानिक जांच करेगा, जिसे चन्द्रमा पर मून इम्पेक्ट प्रोब (एम आई पी) यानी चन्द्र प्रभाव जांच का नाम दिया गया है। यह यान चन्द्रमा के गुरुत्वाकर्षण, उसके अल्ट्रा-सूक्ष्म वातावरण और भौतिक विशेषताओं का अध्ययन करने के लिए आंकड़े एकत्र करेगा।

       यह सवाल अपने में दिलचस्प है कि चन्द्रमा पर मानव के उतरने के लगभग 40 वर्ष बाद एक बार फिर से हमारी रुचि अपने निकटतम खगोलीय (सेलेस्टियल) पड़ोसी के रहस्यों को उज़ागर करने में क्यों फूट पड़ी है। क्या वजह है कि यूरोपीय स्पेस एजेंसी-ई एस ए, जापान, चीन, अमरीका और रूस एक नए उत्साह और सक्रियता के साथ गहन अंतरिक्ष परीक्षणों और चन्द्र मिशनों में जुटे हुए हैं?

       इसका एक कारण यह है कि पिछले तीन दशकों में प्रौद्योगिकी विषयक प्रगति बड़ी तेजी के साथ हुई है। कम्प्यूटर सिकुड़ गए हैं, उनकी क्षमता और गति कई गुणा बढ़ गयी है और संचार प्रौद्योगिकियों की बदौलत अंतरिक्ष में होने वाली फुसफुसाहट भी अविश्सनीय स्पष्टता के साथ भू-केन्द्रों पर लगे मानव-निर्मित कानों, यानी एंटीना पर सुनी जा सकती है। शक्तिशाली ऑन-बोर्ड प्रणालियों, अत्याधुनिक निरीक्षण और मार्ग-दर्शन तथा तत्क्षण फीड़ बैड लूपों से मानव को वह शक्ति हासिल हो गई है, जिससे वह ब्रह्मांड और तारा-प्रणालियों, तात्विक कणों की उत्पत्ति जैसे शाश्वत् प्रश्नों और ब्रह्मांड में व्याप्त मूलभूत नियमों की गहन जांच कर सकता है। अनेक मानव-रहित और मानव-सहित अभियानों के बावजूद चन्द्रमा, जिसका हमारे खगोलीय पड़ोसियों में सर्वाधिक अध्ययन किया गया है, के बारे में अनेक ऐसे रहस्य हैं जिनका खुलासा होना बाकी है।

       इसरो चन्द्रयान अभियान को प्रमुख कार्यक्रम के रूप में संचालित कर रहा है ताकि प्रतिभाशाली भारतीय युवा वैज्ञानिकों को इसके दायरे में लाया जा सके। भारत के समक्ष और भी बाध्यकारी कारण हैं। व्यापक निवेश और बहु-विषयी कौशल की आवश्यकता को देखते हुए अंतरिक्ष में एक लाख किलोमीटर से अधिक दूरी पर किए जाने वाले गहन परीक्षण निरन्तर विभिन्न देशों के बीच सामूहिक प्रयास बनते जा रहे हैं। भारत ग्रहीय खोजों में सहयोग करने वाले देशों के चुने हुए समूह में शामिल होने का इच्छुक है और इस दिशा में पहला कदम यह है कि वह स्वयं की क्षमता के बारे में सफलता प्रदर्शित करते हुए अपनी पहचान कायम करे।

       एक तरह से चन्द्रयान-1 को अंतर्राष्ट्रीय प्रयास के रूप में देखा जा सकता है। 1380 किलोग्राम वजन के उपग्रह पर लगे 11 उपकरणों में से 5 स्वदेशी हैं और 6 अन्य देशों के हैं।

भारतीय पेलोड्स इस प्रकार हैं-

.      चन्द्रमा की भौतिक विशेषताओं का अध्ययन करने के लिए टेरेन (भूभाग) मैपिंग (मानचित्रण)     कैमरा।

.      खनिज संरचना के अध्ययन के लिए हाइपर स्पैक्ट्रल इमेजर

.      चन्द्रमा का व्यापक स्थलाकृति विषयक क्षेत्र बनाने और चन्द्र गुरूत्वाकर्षण क्षेत्र का परिष्कृत      मॉडल तैयार करने के लिए लूनर लेजर रेंजिंग इन्स्ट्रूमेंट।

.      बर्फ, यूरेनियम और थोरियम के क्षेत्रों की पहचान करने के लिए हाई एनर्जी एक्स-रेस्पेक्ट्रोमीटर।

.      मून इम्पेक्ट प्रोब, जो चन्द्रमा पर वांछित स्थान पर प्रभाव डालेगा ताकि निकटवर्ती      अन्तरालों पर चन्द्रमा के निचले और विरल वातावरण की सूक्ष्म खोज की जा सके और भविष्य में सरल लैंडिंग अभियानों के लिए प्रौद्योगिकियों का निर्धारण किया जा सके।

विदेशी उपकरण इस प्रकार हैं:-

.      यूरोपीय स्पेस एजेंसी-ई एस ए का चन्द्रयान-1 इमेजिंग एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर इसकी सहायता से उच्च कोटि का मानचित्रण किया जा सकता है। इसमें एक्स-रे फ्लूऑरेसॅन्स तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है। इसे चन्द्रमा पर मैग्नेशियम, अलुमिनियम, सिलिकन,आयरन और टिटानियम की खोज के लिए विशेष रूप से तैयार किया गया है। इसका विकास रूदरफोर्ड अप्लेटन लैब, यूके और इसरो उपग्रह केन्द्र, बंगलौर द्वारा किया गया है।

. ई एस ए का स्मार्ट निअर इन्फ्रारेड स्पेक्ट्रोमीटर-इसका इस्तेमाल चन्द्रमा के खनिज संसाधनों, सतह विशेषताओं के निर्माण, वह पध्दति जिसके आधार पर चन्द्रमा की पर्पटी की विभिन्न परतें एक दूसरी पर स्थित हैं और वह पध्दति जिसके आधार पर अंतरिक्ष में पदार्थ परिवर्तित होते हैं, का अध्ययन करने के लिए किया जायेगा।

.      ई एस ए से सब किलो इलेक्ट्रॉन वोल्ट एटम रिफलेक्टिंग ऐनेलाइज़र-इसका इस्तेमाल चन्द्रमा की सतह की संरचना और सौर पवन के साथ उसकी अनुक्रिया के अध्ययन तथा चन्द्रमा की मैग्नेटिक विसंगतियों के अध्ययन के लिए किया जायेगा। इस पेलोड के विकास मे भी भारत ने सक्रिय योगदान किया है।

.:      बल्गारिया से रेडिएशन डोज मानीटर- जिसका इस्तेमाल चन्द्रमा के चारों ओर रेडिएशन वातावरण का अध्ययन करने के लिए किया जायेगा।

.:      अमरीका से मिनी सिन्थेटिक अप्रेचर रडार-जिसका इस्तेमाल चन्द्रमा के धुवों के स्थायी रूप       से आच्छादित क्षेत्रों में कुछ मीटर की गहराई तक जल हिम का पता लगाने के लिए किया जायेगा।

.      अमरीका से मून मिनरलॉजी मैपर -जिसका इस्तेमाल उच्च स्पेसियल और स्पैक्ट्रल      रिजोल्यूशन्स में स्पेक्ट्रोस्कोप के ज़रिए खनिजों के मानचित्रण के लिए किया जायेगा।

 

चन्द्रयान-1 क्यूब के आकार का है जिसके एक ओर सोलर पैनल लगा है। इसकी अनेक प्रणालियों को लघुरूप दिया गया है ताकि इसके 11 वैज्ञानिक पेलोड्स की सुरक्षित और सक्षम कार्यप्रणाली सुनिश्चित की जा सके। सोलर पैनल अधिकतम 700 डब्ल्यू ऊर्जा पैदा कर सकता है। 36 ऐम्पियर-अवर लिथियम आयन बैटरी उस समय उपग्रह को ऊर्जा प्रदान करेगी जब सोलर पैनल प्रदीप्त न हो रहा हो।

नए मार्गों का सृजन:-

चन्द्रयान-1 अभियान में, इसरो अनेक ऐसी गतिविधियों को अंजाम देगा जिनकी पहले कभी परिकल्पना नहीं की गई थी।

. धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से बचाते हुए किसी अंतरिक्षयान को चन्द्रमा के प्रक्षेप पथ में पहुंचाना और चन्द्रमा के आस-पास पहुंचने के बाद उपग्रह को धीरे धीरे नीचे लाना और उसे चन्द्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति द्वारा ग्रहण किए जाने की अनुमति देना। चन्द्रयान-1 द्वारा आम तौर पर तय की जाने वाली दूरी से दस गुणा अधिक होगी।

. श्री हरिकोटा से चन्द्रमा तक की समूची यात्रा के दौरान अंतरिक्ष यान की ट्रैक, कंट्रोल और कमान प्रक्रियाएं अत्यन्त जटिल अभ्यासों से गुजरेंगी।

. उपग्रह की कक्षीय जिंदगी के दौरान उसके स्वास्थ्य और सलामती के बारे में गहन अंतरिक्ष से संकेत प्राप्त करना और साथ ही दो वर्ष की अवधि तक यान में लगे उपकरणों और चन्द्रमा पर लक्षित रूप में संघात किए जाने पर एमआईपी से जटिल और भारी मात्रा में आंकड़े प्राप्त करना।

. दो वर्ष तक कक्षा में रहने के दौरान चन्द्रयान-1 को नियंत्रित और निर्देशित करना

. चन्द्रमा से प्राप्त होने वाले व्यापक और विविध प्रकार के वैज्ञानिक आंकड़ों का विश्लेषण करना और वैज्ञानिक समुदाय के साथ उनकी हिस्सेदारी करना।

गहन अंतरिक्ष नेटवर्क केन्द्र

       अंतरिक्ष में इतनी अधिक दूरी से प्राप्त होने वाले रेडियो संकेत कितने शक्तिशाली होंगे? करीब 4 लाख किलोमीटर की दूरी से मिलने वाले संकेत नि:संदेह दुर्बल होंगे। आंकड़ों को प्राप्त करने, सुदृढ़ बनाने, विश्लेषण करने और उन पर कार्य करने के लिए एक अत्याधुनिक भारतीय गहन अंतरिक्ष नेटवर्क केन्द्र बंगलौर से 35 किलोमीटर दूर बाइअलालु में कायम किया गया है। इस केन्द्र पर गहन अंतरिक्ष संकेत प्राप्त करने के लिए 18 मीटर के पैराबोलिक डिश भविष्य में चन्द्र अभियानों के अलावा अंन्तरग्रहीय अभियानों को समर्थन दे सकता है। इलेक्ट्रोनिक्स कार्पोरेशन ऑफ इंडिया ने इस केन्द्र को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाया और चालू किया है। बाइअलालु गांव की स्थिति इस दृष्टि से आदर्श है। वह बाहरी रेडियो शोर से मुक्त है और चारों ओर से पर्वतों से घिरा हुआ है।

       चन्द्रयान-1 को 22 अक्तूबर 2008 को सुबह 6.20 पर निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में छोड़ दिया गया है। लगभग 15 दिन की यात्रा के बाद 8 नवम्बर को यह चन्द्रमा की कक्षा में पहुंचेगा। रुसी सहयोग से तैयार मिशन चन्द्रयान-2 के अंतर्गत 2011-2012 तक चन्द्रमा की सतह पर इन्स्ट्रूमेंट सहित लैंडर#रोवर (एक रोबोट) उतारा जायेगा।

       चन्द्रमा तक पहुंचने और उसे छूने की दिशा में प्रथम असाधारण कदम उठाया जा चुका है। इसरो जिस तरह अपनी गतिविधियों को व्यवस्थित रूप से कार्यान्वित करता है उसकी झलक चन्द्रयान-1 में भी दिखाई दे रही है। इससे यह विश्वास पैदा होता है कि यह व्यापक स्वरूप वाला कार्यक्रम मिशन के सभी लक्ष्यों को हासिल करेगा और अपेक्षित सफलता प्राप्त करेगा।

 

बुधवार, 29 अक्तूबर 2008

राष्ट्रभक्ति का ढोंग रचने वाले अलगाववादी नेताओं से सावधान

राष्ट्रभक्ति का ढोंग रचने वाले अलगाववादी नेताओं से सावधान

तनवीर जांफरी (सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी, शासी परिषद)

email:tanveerjafri1@gmail.com tanveerjafri58@gmail.com tanveerjafriamb@gmail.com 22402, नाहन हाऊस अम्बाला शहर। हरियाणा फोन : 0171-2535628  मो: 098962-19228

       भारतीय राजनीति के परिपेक्ष में जब कभी अलगाववाद की बात चलती है तो सबसे पहले आम लोगों का ध्यान जम्मु-कश्मीर तथा पूर्वोत्तर क्षेत्र में पनपने वाले उन आन्दोलनों की ओर जाता है जो अलगाववाद के अपने दूरगामी लक्ष्य के लिए संघर्षरत हैं। ऐसे अलगाववादी अभियानों से निपटने के लिए भारत सरकार द्वारा क्षेत्रीय राज्य सरकारों व स्थानीय प्रशासन के सहयोग से इन्हें कुचलने हेतु भरसक प्रयास किए जाते हैं। यहां तक कि आवश्यकता पड़ने पर सैन्य बल, अर्धसैनिक बलों तथा स्थानीय पुलिस की भी पूरी मदद ली जाती है। ऐसे अलगाववादी मिशन चलाने वाले संगठनों को काली सूची में डाल दिया जाता है तथा इनसे सख्ती से निपटने के हर सम्भव उपाय किए जाते हैं। परन्तु अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भारत में अलगाववाद भी राष्ट्रवाद के मुखौटे के साथ सक्रिय हो उठा है। और इसकी शुरुआत भारत के एक समृद्ध राज्य महाराष्ट्र से हो भी चुकी है।

              वैसे तो भारत के औद्योगिक व आर्थिक दृष्टिकोण से कांफी समृद्ध राज्य समझे जाने वाले महाराष्ट्र राज्य में शिवसेना नामक एक क्षेत्रीय पार्टी का गठन क्षेत्रवाद को बढ़ावा देने के आधार पर ही हुआ था। परन्तु स्वयं को राजनीति में स्थापित करने के लिए शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे द्वारा राष्ट्रवादी होने के साथ हिन्दुत्ववादी होने का ढोंग भी रचा गया। और इसी रास्ते पर चलकर बाल ठाकरे की शिवसेना तथा एक अन्य हिन्दुत्ववादी राष्ट्रीय दल भारतीय जनता पार्टी के मध्य कई दशकों तथा सत्ता हथियाने के लक्ष्य को लेकर अच्छी सांठगांठ भी रही जोकि आज भी ंकायम है। बाल ठाकरे के हिन्दुत्ववादी विचारों को अपनाकर भले ही भाजपा ने केंद्र में सत्ता प्राप्त करने जैसा लाभ क्यों न उठाया हो परन्तु भारतीय जनता पार्टी की इस स्वार्थ सिद्धि ने शिवसेना जैसी क्षेत्रवादी विचारों वाली पार्टी को मंजबूत करने में भी अपना अहम योगदान दिया है। अब बाल ठाकरे के पदचिन्हों पर ही चल पड़े हैं, उनके भतीजे राज ठाकरे।

              बाल ठाकरे के उत्तराधिकारी बनने को उठे विवाद में राज ठाकरे ने उसी 'राजनैतिक सामग्री' की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना नामक अपनी अलग 'दुकान' चलानी शुरु कर दी जोकि उनके चाचा बाल ठाकरे 'बेचा' करते थे अर्थात् क्षेत्रवाद एवं मराठावाद। बड़े दु:ख की बात है कि यह ठाकरे परिवार एक ओर तो स्वयं को हिन्दुत्ववादी विचारधारा का घोर समर्थक बताता है। यह परिवार अपने से बड़ा राष्ट्रभक्त भी किसी को नहीं समझता। इनके झण्डे व पहनावे भी ऐसे हैं कि कोई भी इन्हें सच्चा हिन्दुत्ववादी, देशभक्त नेता ही समझ बैठे। परन्तु पिछले कुछ समय से इस ठाकरे परिवार द्वारा परस्पर राजनैतिक प्रतिस्पर्धा के अन्तर्गत जिस प्रकार क्षेत्रवादी आन्दोलन को हवा दी जा रही है तथा ंगैर मराठों पर जिस प्रकार ंजुल्म ढाए जा रहे हैं, उससे अब यह सांफ लगने लगा है कि इनकी देशभक्ति एवं राष्ट्रभक्ति महंज एक ढोंग और नाटक के सिवा और कुछ नहीं। भतीजे राज ठाकरे इन दिनों अपनी पूरी राजनैतिक उर्जा का प्रयोग इस मंकसद के लिए कर रहे हैं कि किसी तरह वे अपने चाचा बाल ठाकरे को मराठावाद के हितैषी होने की प्रतिस्पर्धा में पछाड़ सकें। इसके लिए राज ठाकरे ने एक अलग क्षेत्रीय दल का भी गठन किया है। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के तत्वावधान में राज ठाकरे महाराष्ट्र में जनसभाएं करते फिर रहे हैं। उनके भाषणों में राष्ट्रवाद के बजाए मराठावाद व क्षेत्रवाद का ही  ंजिक्र रहता है। मराठावासियों को वे हर हाल में यह समझाना चाहते हैं कि क्षेत्रीय लोगों के सबसे बड़े हितैषी वही हैं कोई और दूसरा नेता नहीं। राज ठाकरे अपने इस अभियान के तहत शेष भारतवासियों विशेषकर उत्तर भारतीयों के प्रति मराठों के दिलों में नंफरत के बीज भी बो रहे हैं। पिछले दिनों महाराष्ट्र में सैकड़ों ऐसी घटनाएं घटीं जिनमें कि राज ठाकरे के गुण्डों द्वारा बेगुनाह व निहत्थे मेहनतकश लोगों, टैक्सी ड्राइवरों, दुकानदारों, नौकरीपेशा लोगों, छात्रों तथा सरकारी सेवा में नौकरी हेतु परीक्षा देने आए उत्तर भारतीयों की जमकर पिटाई की गई। कांफी दिनों से मनसे द्वारा की जाने वाली इस गुण्डागर्दी का आंखिरकार पिछले दिनों उत्तर भारतीयों द्वारा भी जवाब दिया गया। भारतीय रेल सेवाएं बाधित हुईं, रेल सम्पत्ति को नुंकसान पहुंचा, कई जगहों पर बसों को जलाया व तोड़ फोड़ दिया गया। कुल मिलाकर राष्ट्रीय सम्पत्ति की कांफी क्षति हुई।

              सवाल यह है कि क्षेत्रवादी विचारधारा के नाम पर अलगाववाद को हवा देने वाले ऐसे तथाकथित राष्ट्रभक्त नेता क्या आगे भी यूं ही खुलेआम घूमते रहेंगे? क्या इनके द्वारा दर्शाया जाने वाला मराठा प्रेम का झूठा नाटक राज्य में सत्ता हथियाने का साधन मात्र नहीं? दरअसल गत् दो दशकों से भारत में अपनी जगह बना चुकी गठबंधन दलों की राजनीति ने देश के बड़े से बड़े नेताओं को उनकी हैसियत की पहचान करा दी है। अब भारत में ऐसे नेता व ऐसी पार्टियां कम ही हैं जिनकी आवांज, पहुंच तथा पहचान राष्ट्रीय स्तर पर कश्मीर से कन्याकुमारी तक हो। अत: अब दूसरी श्रेणी के नेताओं द्वारा क्षेत्रीय राजनीति को बढ़ावा देने की कोशिश की जा रही है। ऐसे नेताओं द्वारा क्षेत्रवाद को बढ़ावा देने वाले तथा इसे हवा देने वाले मुद्दों की पहचान की जा रही है तथा उनपर धार रखने के सभी उपाय किए जा रहे हैं। ऐसा करने के लिए यह क्षेत्रीय नेता पहले स्थानीय जनता के हितों के सबसे बड़े रक्षक के रूप में स्वयं को जनता के समक्ष प्रस्तुत करते हैं तथा यदि इतना कांफी न हो और हितैषी बनने मात्र से जनता आकर्षित न हो तो शेष भारतीयों के लिए नंफरत पैदा करने के हथकंडों को अपनाने से भी यह परहेंज नहीं करते।

              राष्ट्रीयता की विचारधारा रखने वाले भारतवासियों को अब इस बात का संदेह होने लगा है कि राज्य की सत्ता पर ंकब्ंजा जमाने के उद्देश्य से अपनाए जाने वाले अलगाववादी नेताओं के यह हथकंडे कहीं भारत को उस पूर्व अंफंगानिस्तान की तरह विभाजित न कर डालें जहां कि मात्र एक दशक पूर्व अलग-अलग टुकड़ों में अलग-अलग ंकबीले के सरगना कभी राज किया करते थे। केंद्र सरकार को ऐसी क्षेत्रीय, संकुचित व अलगाववादी सोच को हवा देने वाली राजनीति तथा ऐसी राजनीति करने वाले नेताओं के साथ सख्ती से निपटने की ंजरूरत है। इसके साथ-साथ भारतवासियों को भी स्वयं को पहले भारतवासी तथा राष्ट्रवादी होने पर गर्व महसूस करना चाहिए, किसी राज्य विशेष का निवासी होने पर नहीं।

       देश में राज्य की सीमाओं का निर्धारण क्षेत्रीय विकास के मद्दनेंजर तथा प्रशासनिक सहूलियतों के दृष्टिगत् किया जाता है। इसके लिए कुंए के मेंढक सरीखे नेताओं की चापलूसी भरी बातों में आने की ंकतई कोई ंजरूरत नहीं है। देशवासियों को अलगाववादी सोच रखने वाले ऐसे नेतओं से सचेत रहने की ंजरूरत है। देश का जो भी दल, जो भी नेता तथा जो भी क्षेत्रीय संगठन राष्ट्रीय हितों पर क्षेत्रीय हितों के हावी होने का मार्ग दिखाता है अथवा ऐसे दुर्भावना फैलाने वाले मिशन को हवा देता है, ऐसे लोगों से आम जनता को ंखबरदार रहना होगा। देश में धर्म, जाति, क्षेत्र अथवा भाषा के नाम पर अपनी राजनीति चलाने वाले नेता केवल क्षेत्रीय सत्ता हथियाने के लिए जनता के मध्य उनके हमदर्द के रूप में ऐसे ही मुखौटे पहनकर सामने आते हैं। परन्तु ंजरूरत है इनके मुखौटों को पहचानने व इन हथकंडों को नाकाम करने की ताकि हमारा भारत अखंड रह सके।        तनवीर जांफरी

 

लाउड स्पीकर का प्रयोग कितना उपयोगी कितना घातक

लाउड स्पीकर का प्रयोग कितना उपयोगी कितना घातक

निर्मल रानी 163011, महावीर नगर, अम्बाला शहर,हरियाणा

       नि:सन्देह विज्ञान  ने अब तक जितने भी आविष्कार किये हैं उन्हें जहां अनेकों क्षेत्रों में 'वरदान' स्वरूप देखा जाता है वहीं इसके नकारात्मक परिणामों  का विश्लेषण करने के बाद  विशेषक इन्हीं वैज्ञानिक उपलब्धियों  को  'अभिशाप' की संज्ञा देने से भी नहीं चूकते। इसी बात को इस पहलू से भी देखा जा सकता है कि जिस मनुष्य  ने अपनी किसी वैज्ञानिक खोज द्वारा कुछ ऐसा कर दिखाया जिससे कि मानवता को लाभ हुआ तो इसे एक वरदान  के रूप में  देखा गया और जब मनुष्य द्वारा की गई इसी खोज का स्वयं मनुष्य द्वारा ही दुरूपयोग  किया जाने लगा और  यही वरदान रूपी आविष्कार  मानवता के लिए हानिकारक नंजर आया तो इसी उपलब्धि को अभिशाप अथवा घातक वैज्ञानिक उपलब्धि स्वीकार किया जाने लगा।

              विज्ञान की एक ऐसी ही कांफी पुरानी खोज है लाउडस्पीकर  अथवा 'ध्वनि विस्तारक यंत्र'। बेशक इसके तमाम लाभ हैं तथा अनेकों स्थानों पर इसका सदुपयोग होते देखा जा सकता है। देश विदेश में आयोजित होने वाले बड़े से बड़े आयोजनों में दूर दराज तक फैले हाट एवं मेला क्षेत्रों में, जलसे जुलुसों में तथा बड़े से बड़े  समागम  को सम्बोधित करने में, रेलवे, हवाई अड्डों, बन्दरगाहों, बस अड्डों आदि सार्वजनिक  स्थलों  पर यात्रियों, आम लोगों अथवा अपने विभागीय कर्मचारियों को तांजातरीन सूचना व दिशा निर्देश  देने में , स्कूल, कॉलेज, बड़े-बड़े होटलों, पार्कि ग, रेड लाईट चौराहों, धर्म स्थलों, खेल कूद स्टेडियम, रैली आदि  ऐसे तमाम स्थान व अवसर  होते हैं जहां लाउडस्पीकर के प्रयोग का लाभ आम लोगों द्वारा एक आवश्यकता के रूप में उठाया जाता है।  परन्तु जब यही यंत्र  परम्परा, रूढ़ीवाद, फैशन, शोरशराबा, दुकानदारी तथा विज्ञापन आदि का माध्यम मात्र बन जाए तो यही लाउडस्पीकर समाज के लिए प्राय: इतना बड़ा सिर दर्द साबित होने लगता है कि 'अभिशाप' जैसा शब्द भी उसके लिए कांफी नहीं कहा जा सकता।

              लाउडस्पीकर की गणना आज वैज्ञानिक अविष्कार की उस श्रेणी में की जाने लगी है जो आज पूरी मानवता को हर समय नुंकसान पहुंचाने पर तुला है। 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस में हिन्दुत्ववादी नेताओं द्वारा इसी लाउड स्पीकर के बल पर रामभक्तों को उकसाकर भारतीय लोकतंत्र में घटित होने वाली एक शर्मनाक इबारत लिखी गई। बताया जाता है कि 2002 में गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन पर धावा बोलने के लिये जब असामाजिक तत्वाें की भीड़ को इक्ट्ठा करने का नारा बुलन्द किया गया उस समय गोधरा स्टेशन के समीप एक धर्म स्थान पर लगे ध्वनि विस्तारक यंत्र का खुलकर प्रयोग किया गया। आरोप है कि इसी माध्यम से तमाम उत्तेजना पूर्ण बातें लोगों तक पहुंचाकर उन्हें ट्रेन पर धावा बोलने कि लिये उकसाया गया। देश  के दंगा ग्रसित क्षेत्रों में तनावपूर्ण क्षणों में यही यंत्र जलती आग में घी डालने का काम उस समय करता है जब इसी के द्वारा एक धर्मस्थल से हर-हर महादेव की आवांजें  गूंजने लगती हैं तो दूसरे धार्मिक स्थानों से नार-ए-तकबीर अल्लाह-हो-अकबर की सदाएं बुलंद होनी शुरू हो जाती है। इस प्रकार  इस लाउडस्पीकर की 'कृपा' से ही दोनों प्रतिद्वंदी समुदाय के लोग आमने -सामने हो जाते हैं। उपरोक्त उदाहरण  कोई कोरी कल्पना या मात्र काल्पनिक उदाहरण नहीं बल्कि ऐसी सच्चाई है जिससे देश का कोई भी नागरिक इंकार नहीं कर सकता। साम्प्रदायिक दंगों की शुरूआत करने तथा उसे हवा देने में तो इसका प्रयोग होता ही है, इसके अलावा साम्प्रदायिक तनाव फैलाने के समय जब किसी भी सम्प्रदाय विशेष का धर्मगुरू अपने विध्वंसक कौशल के साथ दहाड़  रहा होता

है। तथा अपने सम्प्रदाय में  उत्तेजना का वातावरण पैदा कर रहा होता है। उस समय भी इस यंत्र की ही अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

              मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारों आदि धर्मस्थलों में सुबह-शाम और कहीं कहीं तो   अधिकांश समय तक लाउडस्पीकर द्वारा ध्वनि प्रदूषण फैलाते रहना तो आम बात है। इस यंत्र के प्रयोग का उद्देश्य केवल एक ही होता है कि व्यक्ति विशेष की आवाज को इस यंत्र के माध्यम से अधिक से अधिक दूरी तक तथा अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाया जा सके। क्या यह एक सच्चाई नहीं है कि जिन क्षेत्रों में इन यंत्रों का प्रयोग धर्मस्थानों के नाम पर किया जा रहा है उस क्षेत्र में तमाम स्कूल व कॉलेज के ऐसे बच्चे भी रहते हैं जिनकी पढ़ाई लिखाई इस यंत्र के चलते प्रभावित होती है। विशेषकर परीक्षा के दिनों में जबकि परीक्षार्थी प्रात:काल उठकर परीक्षा की तैयारी करना चाहते हैं, उसी समय हमारे धार्मिक पेशवा लाउडस्पीकर पर भजन आदि की धार्मिक कैसेट चला देते हैं। भले ही वे टेप चलाकर स्वयं भी एक नींद क्यों न सो जाते हों। क्या इस प्रकार का निरर्थक शोर शराबा हमारे छात्रों, समाज के बुजुर्गों और बीमार लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं है? ब्रह्म मुहूर्त का वातावरण सैर करने के लिए इसी वजह से उपयुक्त बताया गया है क्योंकि इस समय का वातावरण हर प्रकार के प्रदूषण  से पूरी तरह मुक्त होता है। अंफसोस की बात है कि धर्मस्थानों द्वारा लाउडस्पीकर के अंधाधुंध उपयोग ने देश के अधिकांश आबादी वाले क्षेत्रों में विशेषकर नगरों में इस ंकद्र ध्वनि प्रदूषण फैला रखा है कि प्रात: काल की सैर से होने वाले स्वास्थ्य लाभ का अर्थ ही समाप्त होता जा रहा है। तमाम धर्म स्थान तो ऐसे भी  देखे जा सकते हैं जिनके द्वारा इस यंत्र से नाजायंज एवं हद से ंज्यादा प्रयोग से दु:खी होकर उनके पडाेसियों द्वारा बांकायदा प्रशासन से शिकायतें की जा चुकी हैं। इस मामले से जुड़ी एक और त्रासदी यह भी है कि यदि कोई व्यक्ति किसी धर्मस्थल पर लाउडस्पीकर के माध्यम से कथित धर्माधिकारी  द्वारा चलाई जा रही इस कष्ट दायक गतिविधि के विरोध में आवांज उठाता है या जनहित में उसे बंद करने को या उसकी आवांज धीमी करने को कहता है तो बिना समय गंवाये हुए वह धर्म का कथित प्रचारक उसी व्यक्ति पर धर्म विरोधी या नास्तिक होने जैसा कोई भी आरोप मढ़ देता है।

              देश का भविष्य तथा समाज का विकास दरअसल बच्चों की शिक्षा से जुड़ा है। बच्चों, बुंजुर्गों, बीमार लोगों के स्वास्थ्य, उनकी देखभाल के लिए वातावरण का शांत और शुध्द होना अत्यन्त ंजरूरी है। यदि इस यंत्र के प्रयोग से समाज का एक भी वर्ग दु:खी व प्रभावित है तो ऐसे  धर्मप्रचार  से आंखिर क्या लाभ? कौन सा धर्म इस बात के लिए प्रोत्साहित करता है कि आप दूसरों की छाती पर मूंग दर कर अपने धर्म के प्रचार की आड़ में अपनी दुकानदारी चलायें तथा छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ करें? ंफिल्मी गानों की धुनों पर भजन पढ़े जा रहे हैं, राम राम एक से लेकर राम-राम दो तीन और यह सिलसिला राम-राम 108 तक पहुंचता है। आंखिर  लाउडस्पीकर के द्वारा राम नाम की माला जपने, शब्बेदारी करने, मीलाद या उर्स मनाने से दूर दरांज के सुनने वालोंको क्या लाभ?

              इस सम्बंध में दरअसल राष्ट्रीय स्तर पर एक नीति बनाये जाने की ंजरूरत है। देश के प्राचीन एवं  ऐतिहासिक वे धर्मस्थान जहां कि पूरे वर्ष दिन-रात लोगों का आना जाना लगा रहता है, उन्हें इस श्रेणी से अलग कर शेष धर्मस्थलों को विशेषकर गली-मोहल्लों और घनी आबादी के मध्य बने और दिन प्रतिदिन नये बनते जा रहे धर्म स्थानों पर प्रयोग होने वाले लाउडस्पीकर पर पूरी पाबंदी लगाई जाए। जहां -जहां ंजरूरी हो वहां यूनिट हॉर्न या टम्पर हॉर्न के बजाये स्पीकर बाक्स का प्रयोग किये  जाने की छूट दी जाये। बाक्स का प्रयोग भी इस प्रकार होना चाहिए कि उसका मुंह उसी धर्म स्थल के भीतरी भाग की ओर हो न कि किसी पड़ोसी के सिर पर रखकर उसका प्रयोग किया जाये।

              यदि प्रगति की राह पर देश को ले जाना है तो हमें समाज की तरक्ंक़ी के उपाय करने होंगे। इस प्रयास को उन्हीं उपायों में से एक अहम प्रयास के रूप में देखते हुए हमें पूरी तरह जागरूक होना होगा। हमें अंध विश्वास के चंगुल से मुक्ति पानी होगी तथा वास्तविकता में जीते हुए ऐसी घटिया एवं हानिकारक परम्पराओं को ठुकराना होगा। लाउड स्पीकर का निरर्थक प्रयोग करने वाले लोगों को भी यह महसूस करना चाहिए कि उनके द्वारा समाज को लाउड स्पीकर के प्रयोग से जो कुछ दिया जा रहा है वह समाज के लिए उपयोगी कम है, घातक अधिक। अत: इसे एक विडम्बना स्वीकार करना चाहिए तथा जहां तक हो सके, इससे परहेंज किया जाना चहिए।

निर्मल रानी

 

सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

बांस का फूल - वनस्पति जगत का रहस्य

बांस का फूल - वनस्पति जगत का रहस्य

पृष्ठभूमिका

       संभवत: बांस से परिचित हरेक व्यक्ति ने यह सुना होगा कि जब बांस से फूल निकलता है तो वह मर जाता है। हालांकि कभी-कभार ही ऐसा होता है न कि सदैव। इसके बावजूद भी बांस के पौधे में फूल आने की घटना को अक्सर ही उसकी मौत की भविष्यवाणी से जोड़ेकर देखा जाता है।

       बांस में फूल आना वनस्पति जगत की एक पहेली है। वे तथ्य जो बांस के पौधे को वनस्पति के सदृश उगने वाले पौधे के स्थान पर फूल देने वाले पौधे के रूप में समझने के लिए प्रेरित करते हैं, पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। बांस की प्राय: सभी प्रजातियों के जीवन संबंधी अपने-अपने इतिहास हैं। भारतीय एशियाई क्षेत्र से बाहर बांस की कुछ प्रजातियां और इस क्षेत्र की गिनी चुनी प्रजातियों के पौधे ऐसे हैं जो वयस्क होकर कई वर्षों तक प्रतिवर्ष फूल और उसके बाद बीज देते हैं। फूल देनेवाला तना फल विकसित होने के बाद अक्सर मर जाता है लेकिन अन्य तने जिंदा रहते है। बांस की भारतीय-एशियाई सामान्य प्रजातियों में से कई प्रजातियां ऐसी हैं जो नियमित रूप से एक ही समय में और एक वर्ष से अधिक के अंतराल में बीज देती हैं। बांस की विभिन्न प्रजातियों का जीवनकाल तीन वर्ष से लेकर 120 वर्ष तक है और एक क्षेत्र की प्रत्येक प्रजाति के लगभग सभी पौधे फूल देते हैं और इस  प्रकार काफी संख्या में बीज देकर खुद मर जाते हैं। ये बीच या तो शीघ्र अंकुरित होते हैं अथवा बरसात की शुरूआत में।

       फूल देने के तरीके के आधार पर बांस के तीन प्रकार हैं। पहले प्रकार का पौधा वार्षिक आधार पर अथवा लगभग उतने ही समय में फूल देता है। भारत में अरूंदीनारिया और थाईलैंड में स्चीजोस्टाचियम ब्राचीक्लैडम इसका उदाहरण है। दूसरे प्रकार के बांस में फूल आने की घटना अनियमित रूप से होती है। एशिया के कटिबंधीय क्षेत्र में बम्बूसा और डेंड्रोकालामस और जापान में फिलोस्टाचिस आदि इसके उदाहरण हैं। तीसरे प्रकार के बांस में वे प्रजातियां हैं जिनमें फूल आने की घटना भिन्न-भिन्न प्रकार से होती हैं, अथवा फूल या तो एक छोटे क्षेत्र में आते हैं अथ्वा कुछेक तनों में। यद्यपि इन पौधों में फूल आने की घटना के अपने चक्र हैं जो एक क्षेत्र में तो समान अवधि के होते हैं किन्तु दूरस्थ स्थानों के लिए उनकी अवधि भिन्न-भिन्न होती हैं। पी.इडुलिस इसका उदाहरण है।

       बांस की कुछ भारतीय प्रजातियों में  फूल आने की घटना निम्नानुसार भिन्न-भिन्न चक्रों में होती हैं। इंडोकैलेमस विटियानस, ओक्लेंड्र स्क्रीप्टोरिया, ओ.रीडी, ओ.स्ट्रीडुला नामक बांस की प्रजातियां एक वर्ष के अंतराल में फूल देती हैं। ओ.ट्रावेंकोरिया प्रजाति के पौधे 7 वर्ष की अवधि में  एक बार फूल देते हैं। थामनोकैलेमस स्पैथीपऊलोरस प्रजाति के पौधे 16-17 वर्षों में और डेंड्रोकैलेमस स्ट्रीक्टस 25-65 वर्षों में फूल देते हैं। भारत में बांस की कुछ अन्य प्रजातियां भी हैं जिनमें से थेमेनोकैलेमस फाल्कोनेरी, चिमोनोबम्बूसा फाल्काटा 28-30 वर्षों में, ऑक्सीथेनांतेरा एबीसीनिका, मेलोकान्ना बेसीफोरा, बम्बूसा अरूंदीनेसिया 30 वर्षों के अंतराल में, डेंड्रोकैलेमस हेमिल्टोनी 30-40 वर्षो में, बम्बूसा टूल्डा 30-60 वर्षों में, बम्बूसा पॉलीमोर्फा 35-60 वर्षों में और चिमोनोबम्बूसा जैंसरेंसिस 45-55 वर्षों के अंतराल में फूल देती हैं। थायरोस्टेचिस ओलीवेरी प्रजाति के बांस के पौधे 47-48 वर्ष में, बम्बूसा कोपेलेंडी और स्यूडोस्टेचियम पॉलीमार्फम 48 वर्ष में और फाइलोस्टेचिस बम्बूसोइड्स 60 वर्षों में (जापान में 120 वर्षों) में पुष्पित होते हैं।

       हालांकि बांसों के पुष्पित होने के बारे में अनेकानेक अनुसंधान और चर्चाएं जारी हैं फिर भी यह विषय वर्णनातीत होने के साथ-साथ रहस्यपूर्ण बना हुआ है। बांस में फूल आने और इसकी मौत होने के बारे में कई सिध्दांत प्रतिपादित किए गए हैं। इसके बार में एक रोग विज्ञान सिध्दांत है जो बताता है कि नीमैटोडों, फफूंदियों, कीटाणुओं और जीवाणुओं जैसे सूक्ष्म जीवों के कारण बांस के विनाश के लिए फूल निकल आते हैं। इसके बारे में सावधिक सिध्दांत के अनुसार अलैंगिक विधि द्वारा बांस के पुनर्जनन हेतु इसकी परिपक्वता होने पर इसका पुष्पित होना शुरू हो जाता है। बांसों के पुष्पित होने के बारे में एक रूपांतरण सिध्दांत है जिसके अनुसार यह घटना अलैंगिक प्रजनन की एक विधि है। इस बारे में पोषण सिध्दांत का कहना है कि बांसों का पुष्पित होना और उसमें फल आना सामान्य रूप से एक प्रकार के शारीरिक व्यवधान के परिणामस्वरूप है जो मुख्य रूप से वानस्पतिक कोशिकाओं के अल्प-विकास के कारण और कार्बन नाइट्रोजन अनुपात में असंतुलन के कारण उत्पन्न होता है। बांसों के फूल के बारे में एक मानवीय सिध्दांत भी है जो बताता है कि बांसों को काटने और जलाने जैसी मानवीय व्यवहारों के कारण ये पुष्पित होते हैं।

       सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि बांस के पुष्पित होने की परिणति उसकी मृत्यु के रूप में होती है। पुष्पित हाने के बाद बांस कई प्रकार के मृत्यु संबंधी लक्षण दर्शाते हैं। बांसों के पुष्पित होने से न तो वायु में मौजूद इसके हिस्से और न ही भूमिगत हिस्से की मृत्यु होती है। अरूंदिनारिया, फाइलोस्टाचिस, बम्बूसा एट्रा की कुछ प्रजातियां इसका उदाहरण हैं। इनके पुष्पित होने के परिणामस्वरूप केवल पौधे के वायु वाले हिस्से की ही संपूर्ण मृत्यु होती है। राइजोम जीवित रहता है और पौधों का पुनर्जनन होता है। अरूंदिना एमाबिलिस, ए सिमोनी, फाइलोस्टेचिस निदुलारिया इसके उदाहरण हैं। बांसों के पौधे के पुष्पित होने के परिणास्वरूप पौधे के वायु में मौजूद हिस्से और भूमिगत हिस्से की पूरी तरह मौत हो जाती है और ऐसे में इनका पुनर्जीवन केवल बीजों से ही संभव हो पाता है। ओलीवेरी, बम्बूसा अरूंदिनेसिया, बी टुल्डा प्रजाति के बांस इसके उदाहरण हैं।

       बांस  के अधिकांश पौधे अपनी प्रजाति के एक ही क्लोन से संबंधित होते हैं। हालांकि उनके जीनों में कुछ ऐसी विशेषताएं छुपी हुई हो सकती हैं जो इसक उत्पादकों के लिए उपयोगी हों। बीजों से उत्पन्न इसके नये क्लोन अधिक मजबूत होने के साथ-साथ बीमारियों अथवा कीटाणुओं के प्रति अधिक प्रतिरोधी और संभवत: अधिक सजावटी भी हो सकते हैं। कुछ लोगों के पास बांस की उन्नत किस्मों के निर्माण की जानकारी है। बीजों से नये पौधे तैयार करने का प्रयास भी किया जाना चाहिए। अक्सर ऐसा पाया जाता है कि बीजों के माध्यम से खास विशेषताओं वाले क्लोन नहीं तैयार हो पाते इसलिए वानस्पतिक रुप से ही इसके संरक्षण का प्रयास करना महत्वपूर्ण है।

       फूल देने वाले बांस के पौधे को पुनर्जीवन प्रदान करने के अनेक तरीके सुझाए गए हैं, जिनमें से कुछ तरीके कुछ मामलों में कारगर पाए गए हैं और ज्यादातर तरीके बेअसर साबित हुए हैं।

       फूल देने वाले बांस के पौधे हमारे सामने एक अवसर उपस्थित करते हैं। बांस के ऐसे सारे पौधे हमेशा नहीं मरते, किंतु अधिकांश मामले में वे मर ही जाते हैं। ऐसा  पौधा जिसने विशेष तौर पर फूल देने के लिए नये तने का विकास करना छोड़ दिया हो उनकी मृत्यु होना अवश्यंभावी है।

       बांस के कई पौधों में फूल आने आने की घटना होती है, किन्तु यह जरूरी नहीं है कि उस प्रजाति अथवा क्लोन के सारे पौधों में ऐसा हो। कई बार ऐसा देखा जाता है कि एक बड़े क्षेत्र में बांस की एक प्रजाति एक ही समय में फूल देती है। सामान्य तौर पर उगाये जाने वाले बांस के पौधे एक ही क्लोन से संबंधित होते हैं अथवा उसके करीब होते हैं और ऐसे में इस बात का जोखिम होता है कि उस प्रकार के सारे पौधे अथवा अधिकांश पौधे फूल दे सकते हैं और मर भी सकते हैं। कई बांस  ऐसे  हैं जो फूल नहीं देते और इस कारण वे बीज भी नहीं दे पाते। किन्तु ऐसे बांस जंगल में विकसित होते नहीं पाये जाते और वे उगाए गए पौधे होते हैं। पुष्पित होने के बाद बांस के पौधे के मरने का सबसे अधिक संभावित कारण यह होना चाहिए कि इसे आवश्यकतानुसार जल,पोषक तत्व, स्थान और धूप न हीं मिल पाते हैं। मृतप्राय पौधे का मलबा बांस के नये पौधों को ढक लेता है। बांस के पौधों में फूल आने और उसके मरने की घटना के लिए समय निर्धारण की प्रणाली को समझ पाना अब तक संभव नहीं हो पाया है और यह प्रकृति की एक अनबुझी पहेली के रूप में विद्यमान है।

       अब प्रश्न यह उठता है कि बांस के किसी पौधे में जब फूल आए तो हमें क्या करना चाहिए। एक विकल्प तो यह है कि हमें इसके लिए कुछ भी नहीं करना चाहिए। ऐसे में पौधे बच सकते हैं। अथवा वे मर जाएंगे। एक दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि हमें बांस के बीजों का संग्रह करके नये सिरे से उसकी पीढी तैयार करने में जुटना चाहिए और मृत अथवा मृतप्राय पौधों को हटा देना चाहिए। यदि कुछ शाखाओं में ही फूल आ रहे हों तो निश्चित तौर पर किसी प्रकार के हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है। वहीं दूसरी ओर यदि पूरे पौधे में फूल आ रहे हों तो फूलवाले पौधे को काटकर हटाना चाहिए।

       बांसों में फूल आने और उनके पुनर्जीवन के बारे में चीन में कई अनुसंधान कार्य किए गए हैं। पी विवेक्स प्रजाति के बांसों में जियांगसू और झेजियांग प्रांतों में वर्ष 1969 से लेकर 1976 तक फूल आने की घटनाएं हुई। सियंग एट अल की रिपोर्ट इनके साथ किए गए प्रयोगों के आधार पर 1981 में प्रकाशित हुई। जिन पौधों में फूल आये थे उनके तीव्र पुनर्जीवन के लिए उनके मूसलों को खोद कर निकाला गया और उनके 30-50 सेंटीमीटर के टुकड़े बनाकर पांच घंटे तक जिबरेलिक अम्ल में डुबाकर रखने के बाद क्यारियों में रोपा गया। जब नये अंकुर आए तो प्रत्येक दो सप्ताह में उनपर छिड़काव किया गया। तीन महीने बाद इस प्राकर उपचारित मूसलों में से 36 प्रतिशत में फूल आए जबकि बिना उपचारित मूसलों में से 64 प्रतिशत में फूल आने की घटनाएं हुईं। एक वर्ष के बाद ऐसा पाया गया कि उपचारित मूसलों से अधिक सामान्य और बिना फूल वाले पौधे तैयार हुए। सियूंग इस बात की चेतावनी देते हैं कि यह आवश्यक नहीं है कि नाइट्रोजन उर्वरक बांसों में फूल आने से रोक सके और कई बार तो यह उनके पुनर्जीवन की गति को धीमी करते हैं।