बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

अकाटय तर्क और भीड़, ग्‍वालियर समाचार और चम्‍बल की आवाज पर पाठक श्री सुरेश शर्मा की टिप्‍पणी युक्‍त राय

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View space  अकाटय तर्क और  भीड़, ग्‍वालियर समाचार और चम्‍बल की आवाज पर पाठक श्री सुरेश शर्मा की टिप्‍पणी युक्‍त राय

 

पाठक की राय

यह विचार हमें ग्‍वालियर टाइम्‍स के दोनों सर्वाधिक हिट संख्‍या वाले ब्‍लॉगों चम्‍बल की आवाज और ग्‍वालियर समाचार पर हमारे पाठक श्री सुरेश शर्मा द्वारा व्‍यक्‍त किये गये हैं । विस्‍तृत विचार होने से हम यहॉं अविकल प्रकाशित कर रहे हैं । श्री सुरेश भाई जी लीजीये हमने अपना अपना वायदा पूरा कर दिया । आपने केवल व्‍यक्तिगत ई मेल हमें भेजी थी हमने उसे सबके लायक समझा और प्रकाशित कर दिया ।

 

 

 

सुरेश कुमार शर्मा ने आपकी पोस्ट " मध्यप्रदेश को समृध्द एवं विकसित राज्य बनाया जावेगा... " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

Subject: RE: Your blog entry "जनता के दुख सुख में शिवराज उनका सहभागी है-मुख्यमंत्री श्री चौहान प्रत्येक पॉच किलो मीटर पर हाईस्कूल " Sent: October 15 8:25:40 AM


दुनिया की क्रांतियों का इतिहास कहता है कि परिवर्तन के लिए दो चीजों की आवश्यकता है । एक अकाट्य तर्क और दूसरा उस तर्क के पीछे खड़ी भीड़ । अकेले अकाट्य तर्क किसी काम का नही और अकेले भीड़ भी कुम्भ के मेले की शोभा हो सकती है परिवर्तन की सहयोगी नही ।
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इस युग के कुछ अकाट्य तर्क इस प्रकार है -
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मशीनों ने मानवीय श्रम का स्थान ले लिया है ।
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कम्प्यूटर ने मनवीय मस्तिष्क का काम सम्भाल लिया है ।
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जीवन यापन के लिए रोजगार अनिवार्य होने की जिद अमानवीय है ।
* 100%
रोजगार सम्भव नही है ।
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अकेले भारत की 46 करोड़ जनसंख्या रोजगार के लिए तरस रही है ।
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संगठित क्षेत्र में भारत में रोजगार की संख्या मात्र 2 करोड़ है ।
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दुनिया के 85% से अधिक संसाधनों पर मात्र 15 % से कम जनसंख्या का अधिपत्य है ।
* 85 %
आबादी मात्र 15 % संसाधनों के सहारे गुजर बसर कर रही है ।
धरती के प्रत्येक संसाधन पर पैसे की छाप लग चुकी है, प्राचीन काल में आदमी जंगल में किसी तरह जी सकता था पर अब फॉरेस्ट ऑफिसर बैठे हैं ।
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रोजगार की मांग करना राष्ट्र द्रोह है, जो मांगते हैं अथवा देने का वादा करते हैं उन्हें अफवाह फैलाने के आरोप में सजा दी जानी चाहिए ।
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रोजगार देने का अर्थ है मशीनें और कम्प्यूटर हटा कर मानवीय क्षमता से काम लेना, गुणवता और मात्रा के मोर्चे पर हम घरेलू बाजार में ही पिछड़ जाएंगे ।
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पैसा आज गुलामी का हथियार बन गया है । वेतन भोगी को उतना ही मिलता है जिससे वह अगले दिन फिर से काम पर लोट आए ।
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पुराने समय में गुलामों को बेड़ियाँ बान्ध कर अथवा बाड़ों में कैद रखा जाता था ।
अब गुलामों को आजाद कर दिया गया है संसाधनों को पैसे की दीवार के पीछे छिपा दिया गया है ।
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सरकारों और उद्योगपतियों की चिंता केवल अपने गुलामों के वेतन भत्तों तक सीमित है ।
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जो वेतन भत्तों के दायरों में नही है उनको सरकारें नारे सुनाती है, उद्योग पति जिम्मेदारी से पल्ला झाड़े बैठा है ।
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जो श्रम करके उत्पादन कर रही हैं उनकी खुराक तेल और बिजली है ।
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रोटी और कपड़ा जिनकी आवश्यकता है वे उत्पादन में भागीदारी नही कर सकते, जब पैदा ही नही किया तो भोगने का अधिकार कैसे ?
ऐसा कोई जाँच आयोग बैठाने का साहस कर नही सकता कि मशीनों के मालिकों की और मशीनों और कम्प्यूटर के संचालकों की गिनती हो जाये और शेषा जनसंख्या को ठंडा कर दिया जाये ।
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दैनिक भास्कर अखबार के तीन राज्यों का सर्वे कहता है कि रोजगार अगले चुनाव का प्रमुख मुद्दा है , इस दायरे में 40 वर्ष तक की आयु लोग मांग कर रहे हैं।
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देश की संसद में 137 से अधिक सांसदों के द्वारा प्रति हस्ताक्षरित एक याचिका विचाराधीन है जिसके अंतर्गत मांग की गई है कि
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भारत सरकार अब अपने मंत्रालयों के जरिये प्रति व्यक्ति प्रति माह जितनी राशि खर्च करने का दावा करती है वह राशि खर्च करने के बजाय मतदाताओं के खाते में सीधे ए टी एम कार्डों के जरिये जमा करा दे।
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यह राशि यू एन डी पी के अनुसार 10000 रूपये प्रति वोटर प्रति माह बनती है ।
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अगर इस आँकड़े को एक तिहाई भी कर दिया जाये तो 3500 रूपया प्रतिमाह प्रति वोटर बनता है
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इस का आधा भी सरकार टैक्स काट कर वोटरों में बाँटती है तो यह राशि 1750 रूपये प्रति माह प्रति वोटर बनती है ।
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इलेक्ट्रोनिक युग में यह कार्य अत्यंत आसान है ।
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श्री राजीव गान्धी ने अपने कार्यकाल में एक बार कहा था कि केन्द्र सरकार जब आपके लिए एक रूपया भेजती है तो आपकी जेब तक मात्र 15 पैसा पहूँचता है ।
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अभी हाल ही में राहुल गान्धी ने इस तथ्य पर पुष्टीकरण करते हुए कहा कि तब और अब के हालात में बहुत अंतर आया है आप तक यह राशि मात्र 3 से 5 पैसे आ रही है
राजनैतिक आजादी के कारण आज प्रत्येक नागरिक राष्ट्रपति बनने की समान हैसियत रखता है ।
जो व्यक्ति अपना वोट तो खुद को देता ही हो लाखों अन्य लोगों का वोट भी हासिल कर लेता है वह चुन लिया जाता है ।
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राजनैतिक समानता का केवल ऐसे वर्ग को लाभ हुआ है जिनकी राजनीति में रूचि हो ।
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जिन लोगों की राजनीति में कोई रूचि नही उन लोगों के लिए राज तंत्र और लोक तंत्र में कोई खास अंतर नही है ।
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काम के बदले अनाज देने की प्रथा उस जमाने में भी थी आज भी है ।
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अनाज देने का आश्वासन दे कर बेगार कराना उस समय भी प्रचलित था आज भी कूपन डकार जाना आम बात है ।
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उस समय भी गरीब और कमजोर की राज में कोई सुनवाई नही होती थी आज भी नही होती ।
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जो बदलाव की हवा दिखाई दे रही है थोड़ी बहुत उसका श्रेय राजनीति को नही समाज की अन्य व्यवस्थाओं को दिया जाना युक्ति संगत है ।
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राष्ट्रीय आय में वोटरों की नकद भागीदारी अगले चुनाव का प्रमुख मुद्दा होना चाहिए ।
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अब तक इस विचार का विस्तार लगभग 10 लाख लोगों तक हो चुका है ।
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ये अकाट्य मांग अब अपने पीछे समर्थकों की भीड़ आन्धी की तरह इक्क्ट्ठा कर रही है ।
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संसद में अब राजनीतिज्ञों का नया ध्रूविकरण हो चुका है ।
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अधिकांश साधारण सांसद अब इस विचार के साथ हैं । चाहे वे किसी भी पार्टी के क्यों न हो ।
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समस्त पार्टियों के पदाधिकारिगण इस मुद्दे पर मौन हैं ।
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मीडिया इस मुद्दे पर कितनी भी आँख मूँद ले, इस बार न सही अगले चुनाव का एक मात्र आधार 'राष्ट्रीय आय मं. वोटरों की नकद भागीदारी' होगा, और कुछ नही ।
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जो मिडिया खड्डे में पड़े प्रिंस को रातों रात अमिताभ के बराबर पब्लिसिटी दे सकता है उस मीडिया का इस मुद्दे पर आँख बन्द रखना अक्षम्य है भविष्य इसे कभी माफ नही करेगा|

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