सोमवार, 30 नवंबर 2009

सचिन को कुछ मत कहो - राकेश अचल

सचिन को कुछ मत कहो  -  राकेश अचल

विवाद

       शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस महान क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर को लेकर राजनीति कर रहे है। यह ठीक नहीं है। सचिन तेंदुलकर महाराष्ट्र का ही नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र का गौरव है, वे राजनीति के लिए कतई नहीं बने है।

शिवसेना मराठी मानस होते हुए भी सचिन रमेश तेंदुलकर से इसलिए नाराज है क्योकि सचिन ने सेना के सुर में सुर नहीं मिलाया। मराठी और महाराष्ट्र से ऊपर राष्ट्र को रखा। यह सचिन ही कर सकते है। वे राष्ट्र और महाराष्ट्र तथा मराठी, हिंदी के महत्व को समझते है।

मराठी में शपथ न लेने पर सेना का क्लोन मन से सपा विधायक अबू आजमी पर तो हाथ उठा सकती है लेकिन सचिन तेंदुलकर पर नहीं। दोनों ठाकरे सेनाओ को पता है कि सचिन की होना उनकी सेनओ से कही ज्यादा बडी और शक्तिशाली है। सचिन का नायकत्व किसी भी कार्टूनिस्ट से कही ज्यादा बड़ा है। सचिन को बोलने के लिए किसी सामना जैसे माउथ पीस की जरूरत नही है सचिन कम, उनका बल्ला ज्यादा बोलता है।

भारतीय रेल ने दूरतों नाम की रेल का लोकर्पण किया तो सचिन प्रेमी राकपा ने दूरन्तों का नाम सचिन के नाम पर रखने की मांग कर डाली। राकांपा की इस मांग के पीछे सचिन प्रेम है या राजनीति यह खोज का विषय है किंतु शिवसेना को तो यह राजनीति है लगी। इसीलिए उन्होने राकांपा की मांग का विरोध करते हुए सचिन को भी छोटा बनने की घटिया कोशिश कर डाली।

दुर्भाग्य देखिए कि शिवसेना वाले मीडिया को भगवान नहीं मानते और उनके माउथपीस सामना के संपादक संजय राउत सचिन को महान नहीं मानते। उस सचिन को जिसकी महानता को पूरी दूनिया सलाम करती है।

मुझे नही लगता कि सामना में लिखी ऊट पटांग टिप्पणी से सचिन तेंदुलकर का कुछ नुकसान होने वाला है। राउत को अपने लिखे पर भरोसा है तो वे सबसे पहले शिवसेनिको को सचिन का क्रिकेट देखने से मना कर देखे। असलियत का पता चल जाएगा।

सचिन को लेकर शिवसेना द्वारा शुरू की गई राजनीति से सचिन के साथ साथ उनके असंख्य प्रशांसक भी आहत हुए है। इनमें मराठी भी है और गैर मराठी भी। इसलिए बेहतर तो यही है कि शिवसेना पहले राजनीति का मतलब समझे फिर राजनीतिक व्यवहार करना सीखे। गुण्डे-मवालियों की भाषा और उन्ही जैसा व्यवहार कम से कम भारतीय राजनीति का हिस्सा तो नही हो सकता।

पिछले कुछ वर्षो में शिवसेना और उसके क्लोन मनसे की जो गतिविधिया रही है उनसे साबित हो गया है कि महाराष्ट्र की यह सेनाऐ बसपा के जातिवादी चरित्र से भी ज्यादा जहरीली और राष्ट्रघाती है। वोटों की खातिर केंद्र और राज्यों की सरकारें भले ही इन घातक संगठनों पर रोक न लगाएं, किंतु महाराष्ट्र की सुस्ंकारित जनता को तो इनका बहिष्कार करना ही चाहिए। इस पूरे विवाद में हम सचिन रमेश तेंदुलकर के सयंम की सराहना करना चाहते है कि उन्होने कोई प्रतिक्रिया नही की। उनके मौन ने ही ठाकरे सेना का पानी उतार दिया। सेना की टिप्पणी का न शिव सैनिको पर असर हुआ न मराठी मानस परं सब जानते है कि सचिन मराठी बाद मे है पहले सच्चे भारतीय है। उन तमाम सच्चे भारतीयों की तरह जो किसी सेना का अंग नही है। जिन्हे कोई ठाकरे निर्देशित नहीं करते।

इस देश ने बीते सालों में कितने ही भाषायी आंदोलन और भाषा के आधार पर बने राजनीतिक संगठन देखे है लेकिन कोई भी अजर-अमर नहीं हो सका। हिंदी का विरोध कर दस पांच तो सबकी राजनीति चली, लेकिन बाद मे सब धूल मे मिल गए। हिंदी से अलग रहकर न आज देष की राजनिति जीवित रह सकती है, न अर्थ व्यवस्था। समाज तो हिंदी के बिना रह ही नही सकता। कोई भी भाषा और क्षेत्र हो, हिंदी सबके लिए संपर्क की भाषा है। विचार विमर्श का माध्यम है। हिंदी की अस्मिता मराठी की अस्मिता से कतई अलग नहीं है, इसलिए जागो, सैनिकों जागो। (भावार्थ)

 

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