शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

श्रध्दांजलि : नाट आउट प्रभाष जी- राकेश अचल

श्रध्दांजलि : नाट आउट प्रभाष जी- राकेश अचल

       प्रभाष जोशी जी नहीं रहे। खबर मिली तो यकी नही नहीं हुआ। होता भी कैसे। अभी कुछ रोज पहले ही तो उन्होने 75 वर्ष की उम्र तक लिखने का भरोसा दिलाया था।

       15 जनवरी 1936 को मालवा में जन्मे प्रभाष जोशी से मेरी मुलाकात कुल छब्बीस साल पुरानी है लेकिन इस मुलाकात की ताजगी आज भी बरकरार है। जोशी जी ेिहंदी पत्रकारिता को नया मुहावरा देने वाले हिंदी दैनिक ''जनसत्ता'' के संस्थापक संपादक थे, और मै इस अखबार का अदना सा संवाददाता।

       बहादुर शाह जफर मार्ग स्थित इंडियन एक्स-प्रेस की बिल्डिंग मे मै जब पहली बार प्रभाष जी से मिला तब मेरी उम्र केवल 24 वर्ष की थी। पहली ही नजर में घोती छाप इस महान संपादक को मै धोती छाप संवाददाता जंच गया। एक बड़े संपादक के साथ बिना लाग लपेट का यह मेरा पहला और आखरी रिश्ता था।

       प्रभाष जी जैसे बाहर से दिखते थे, भीतर से भी वे वैसे ही थें। अपनी टीम को भीतरी बाहरी आघातों से बचाने में उन्हे कोई संकोच नहीं होता था।

       एक घटना याद आती है। मेरी डाकू प्रभान खबरे लगातार जनसत्ता में डंप हो रही थी।  एक दिन वे तमाम खबरे एक अन्य स्वनाम धन्य संवाददाता के नाम से छपी तो मेरा माथा ठनका। मैने प्रभाष जी से शिकायत की। उन्होने तत्काल दोषी को सजा दी और मुझे हौसला।

       मेरे जैसे पता नहीं कितने खबरनवीसो की कलम से प्रभाष जोशी ने तुतलाहट दूर कर उसमें ''सच'' लिखने का साहस भरा। वे जब तक जनसत्ता के संपादक रहे तब तक अगर सच लिखा गया तो सच छपा भी।

       जोशी जी 73 वर्ष की उम्र में भी बदले नहीं। वहीं झीना सा सफेद कुर्ता, कलफ लगी धोती आौर काला अण्डाकार फ्रेम का चश्मा उन्हे भीड़ मे सबसे अलग कबाए रखता था। प्रभाष जी जितना अच्छा लिखते थे, उससे कहीं ज्यादा अच्छा बोलते थे। उनके पास लोककथाओं, मुहावरों, अलंकारों का अथाह भण्डार था। उनकी बात किसी छोटी लोक अथवा हितोश्देश कथा से शुरू होती थी और उसी से समाप्त।

       पक्के गांधी बादी प्रभाष जी आलोचनाओं से कभी नहीं डरे। कभी नहीं बिदके। उन्होने हर आलोचना का सधा हुआ उत्तर दिया। आजकल मूल्य परक पत्रकारिता पर काम कर रहे थें। उन्हे पाठक की चिंता थी। अखबारों पर हावी हो रहे बाजार ने उन्हे परेशान कर रखा था। चुनावों के दौरान अखबारों में शुरू हुई पैकेजबाजी के खिलाफ बोलने वालों मे जोशी जी सबसे आगे थे।

       विनोवा भावे की चंबल यात्रा के दौरान डाकुओ के विशाल आत्म समर्पण पर प्रभाष जी ने बड़ी रोचक डायरी लिखी। यह डायरी एक पुस्तक के रूप् मे प्रकाशित हुई। म.प्र. के दस्यु उन्मूलन के 50 वर्ष पर केंद्रित एक पुस्तक की भूमिका लिखने के लिए उन्होने मुझे खूब छकाया लेकिन भरोसा नहीं तोड़ा। वे अपनी व्यस्तता के चलते यह भूमिका नहीं लिख सके। लेकिन वे जिस भूमिका नहीं लिख सके। लेकिन वे जिस भूमिका मे भी रहें संपूर्ण रे। क्रिकेट उनकी जिंदगी थी, लेकिन पत्रकारिता की पिच पर भी प्रभाष जी ''नाट आउट'' जा रहे है। अलविदा

                  राकेश अचल ग्‍वालियर चम्‍बल के वरिष्‍ठ पत्रकार हैं

 

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