गुरुवार, 13 मार्च 2008

कैसे बनते हैं नकली दांत

कैसे बनते हैं नकली दांत

सुभाषचंद्र अरोड़ा

संयुक्‍त संचालक , संभागीय जनसम्‍पर्क कार्यालय ग्‍वालियर

       कुछ बरस पूर्व मैं अपने एक दंत चिकित्सक मित्र के पास बैठा था तभी वहां एक वृध्दा नकली दांतों का सैट लगवाने आयी । व्यय आदि पूछने के बाद उसने एक विचित्र सा सवाल किया जिसे सुनकर मुझे हतप्रभ रह जाना पड़ा । वृध्दा ने पूछा, उन्हें जिन मृत व्यक्तियों के दांत लगाये जावेगें उनका भूत तो उसे परेशान नहीं करेगा ? वृध्दा की जानकारी कुछ ऐसी थी कि शमशान घाट से मुर्दों के दांत चुनकर उपयोग में लाये जाते हैं । ऐसे में अगर उन दांतों को मंत्रशक्ति से शुध्द न किया गया हो तो उन मृत व्यक्तियों का प्रेत दांतों को धारण करने वाले व्यक्ति को परेशान करेगा ।

       बहुत कम लोगों के दांत उम्र भर साथ देते हैं । उम्र के साथ गिरने वाले या कम उम्र में दांत खोने की कई वजह हो सकती है । दंत क्षय, दुर्घटना, घातक प्रहार व जन्म जात व्याधियों के कारण भी दांत समय से पहिले जा सकते हैं। ऐसे में खाने-चबाने में कठिनाई, शब्दों के स्पष्ट उच्चारण में परेशानी तथा चेहरे की बनावट प्रभावित होती है । इन दुष्प्रभावों को कम करने में नकली दांत काफी मददगार साबित होते हैं ।

       कृत्रिम दंत निर्माण के प्रारंभिक काल में संभवत: मृतकों के दांतों का भी उपयोग किया जाता रहा होगा । फिर लकड़ी के भी दांत बनाये गये व उनको रेशम की डोरी से बांधकर उपयोग किए जाने के प्रमाण मिले हैं । भारतीय कृत्रिम दंत शिल्प भी कम पुराना नहीं है । महाभारत में कर्ण के स्वर्ण निर्मित दांतों का उल्लेख भारतीय दंत शिल्प में धातु के उपयोग का एक अच्छा उदाहरण है ।

आज से लगभग आधी सदी  पूर्व तक वॅलकेनाइट  नामक रबर व पोरसेलिन निर्मित दांतों से नकली दांत तैयार किए जाते थे । पोरसेलिन के दांतों को आज भी पत्थर के दांत कहा जाता है । दांत (डेन्चर) बनाने में प्रयुक्त वेलकेनाइजिंग प्रक्रिया जटिल थी साथ ही रबर का डेन्चर बेस मुखगुहा के ऊतकों द्वारा सहज स्वीकर्य नहीं था । रबड़ का रंग भी मसूड़ों के रंग से मेल नही खाता था । दंत चिकित्सक निरंतर इस कार्य के लिए उपयुक्त विकल्प की खोज में थे । जो उन्हें एक्रेलिक प्लास्टिक के रूप में मिल गया । एक्रेलिक कृत्रिम दंत निर्माण में एक प्रकार से वरदान साबित हुआ । वर्तमान में तो प्राय: लोग वॅलकेनाइट को भूल ही चुके हैं अलबत्ता पत्थर के दांत के नाम पर पोरसेलिन का थोड़ा बहुत उपयोग आज भी हो रहा है ।

       एक्रेलिक प्लास्टिक के कुचालक होने के कारण आज भी दंत विशेषज्ञ इसे आदर्श नहीं मानते व उनकी बेहतरी के लिए तलाश भी जारी है । डेन्चर बेस में धातु का उपयोग भी हो रहा है जिसके लिए ढलाई की विशेष प्रक्रिया अपनानी पड़ती है । वर्तमान में इस कार्य के लिए चांदी सरीखी सफेद धातु वाइटेलियम का अधिक उपयोग हो रहा है । स्वर्ण धातु का भी प्रयोग किया जाता है । मुंह में होने वाली विभिन्न रसायनिक क्रियाओं का इन धातुओं पर प्रभाव भी नहीं होता ।

       नकली दांतों के पूरे सैट में 28 दांत लगाये जाते हैं । एक दो या अधिक दांतों के टूट जाने अथवा गिर जाने पर भी आवश्यकतानुसार दांत लगवाये जा सकते हैं । ऐसे में सामानयत: दो प्रकार के दांत लगाये जाते हैं । एक वह  जिन्हें मरीज स्वयं निकाल व लगा सकता है तथा दूसरे चिकित्सक द्वारा फिट कर दिए जाने पर रोगी न तो निकाल पाता  न ही निकालने की कोई आवश्यकता ही होती है। पहली प्रकार के दांत मुंह में उपस्थित अन्य दांतों व ऊतकों के सहारे टिकते हैं जबकि दूसरी किस्म के नकली दांत बगल के दांत पर खोल से जकड़े व टिके रहते हैं । इन्हें फिक्सड अथवा ब्रिज भी कहा जाता है व पुल से यह तुलनात्मक समानता भी रखते हैं । इनके निर्माण में अतिरिक्त सावधानी तथा जटिल प्रक्रिया अपनानी पड़ती है । मजबूती के लिए वाइटेलियम व गोल्ड एलाय का उपयोग किया जाता है। सुंदरता की दृष्टि से दिखाई देने वाले अग्र भाग को प्लास्टिक अथवा पोरसेलिन में वास्तविक दांतों के रंग एंव आकार के अनुरूप बनाया जाता है ।

       टूटने पर प्लास्टिक के दांत स्पष्ट रेखा में टूटते हैं जिससे इनकी मरम्मत सरल है । मरम्मत भी एक्रेलिक प्लास्टिक से हो जाती है  जिससे रासायनिक संयोजन हो जाता है व मजबूती बनी रहती है । नकली दांत (डेन्चर) का ढीला ढाला होना, ऊतकों को निरंतर काटना व इरीटेट करना गंभीर समस्याओं को जन्म दे सकता है । ढीले डेन्चर के ऊतकों के सम्पर्क में आने वाले हिस्से में खाना जमा होकर सड़नें लगता है जिससे डेन्चर पहिनने वाले के मुंह से बदबू आ सकती है । ऊतकों मे डेन्चर के निरंतर चुभने व काटने से मुखगुहा के कैंसर जैसे गंभीर रोग होने की संभावनाओं से भी इंकार नहीं किया जा सकता ।

       नकली दांतों का उपयोग करने वालों को इनकी सफाई पर विशेष ध्यान देना चाहिए । नकली दांतों की सफाई के लिए बाजार में बहुत से डेन्चर क्लीनर्स उपलब्ध है । हल्के नमक के तेजाब के उपयोग से भी इन्हें साफ किया जा सकता है । तेजाब को घर पर रखने में बच्चों से विशेष सावधानी बरतना जरूरी हो जाता है ।

       मुंह के कैंसर जैसी बीमारियों में दांत व आसपास के रोग प्रभावित ऊतकों को आप्रेशन करके निकाल देने के अलावा जब कोई चारा नहीं रहता तो ऐसे में कभी कभी तालू का एक पूरा भाग व दांत आदि निकाल दिए जाने पर मरीज की सामान्य क्रियाओं को बनाए रखने के लिए विशेष प्रकार की प्रोसथिसिस तैयार की जाती है जिसे आप्टयूरेट कहते हैं। खाली बल्ब वाले आपटयूरेटर इस दिशा में मरीजों के तालू निकल जाने के बाद खाने, पीने व बोली समस्याओं के साथ साथ कुछ हद तक चेहरे की बनावट सुधार में भी मददगार साबित होते हैं ।

 

सुभाषचंद्र अरोड़ा

          मो.नं. 94256-19790

 

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