शुक्रवार, 6 जून 2008

खतरे में पर्यावरण

खतरे में पर्यावरण

श्रीमती राजबाला अरोड़ा

एम.एससी(बॉटनी)

बी.जे.सी,

       प्रकृति के पाँच तत्व जल, अग्नि, वायु, आकाश एवं पृथ्वी पर्यावरण के अभिन्न अंग हैं जिनका आपस में गहरा सम्बंध है । इन पाँचों तत्वों में किसी एक का भी असंतुलन पर्यावरण के लिये अपूर्णनीय क्षतिकारक और विनाशकारी है । पर्यावरण दो शब्दों परि और आवरण से बना है जिसका अर्थ है चारों ओर का घेरा हमारे चारों ओर जो भी वस्तुएं, परिस्थितियां या शक्तियां विद्यमान हैं, वे मानवीय क्रियाकलापों को प्रभावित करती हैं और उसके लिये दायरा सुनिश्चित करती हैं । इसी दायरे को पर्यावरण कहते हैं ।

       पर्यावरण के अंग्रेजी शब्द इनवायरन्मेंट का उद्भव फ्रांसीसी भाषा के इनविरोनिर शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ है घेरना । इनवायरन्मेंट का समानार्थक शब्द हैबिटैट है जो लैटिन भाषा के हैबिटायर शब्द से निकला है । हबिटैट शब्द पर्यावरण के सभी घटकों को स्थानीय रूप से लागू करता है इसका प्रभाव आवास स्थल तक सीमित है । जबकि इनवायरन्मेंट शब्द हैबिटैट की तुलना में अधिक व्यापक है ।

       देखा जाये तो पर्यावरण को दो प्रमुख घटकों में विभाजित किया जा सकता है । पहला जैविक अर्थात बायोटिक जिसमें समस्त प्रकार के जीवजन्तु व वनस्पतियां (एक कोशिकीय से लेकर जटिल कोशिकीय तक ) दूसरे प्रकार के घटक में भौतिक अर्थात अजैविक जिसमें थलमण्डल, जलमण्डल व वायुमण्डल सम्मिलित हैं । इन सभी घटकों में सृष्टि ने मानव जीवन की सर्वश्रेष्ठ  जीव के रूप में उत्पत्ति की है । अत: मानव सम्पूर्ण जीव जगत का केन्द्र बिन्दु है । पर्यावरण के सभी महत्वपूर्ण घटक मानव को परावृत्त करते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी पर्यावरण के प्रभावों को परिलक्षित करती है। वस्तुत: अनुवांशिकी एवं पर्यावरण ये दो महत्वपूर्ण कारक मानव जीवन को प्रभावित करते हैं । समस्त जीवों में सर्वश्रेष्ठ जीव होने के नाते मनुष्य ने प्रकृति की प्राकृतिक सम्पदाओं का सदियों से भरपूर दोहन किया है । लेकिन वर्तमान दौर में बढ़ती जनसंख्या, पश्चिमी उपभोक्तावाद एवं वैश्विक भूमण्डलीकरण के मकड़जाल में फँस कर मनुष्य प्रकृति के नैसर्गिक सुख को खोता जा रहा है । वह नहीं जान पा रहा कि कंकरीट का शहर बसाने की चाहत के बदले में वह अपना भविष्य दाँव पर लगा बैठा है ।

       प्रकृति के समस्त संसाधन प्रदूषण की चपेट में है । हवा, जल और मिट्टी जो हमारे जीवन के आधार हैं जिनके बिना जीवन की कल्पना ही बेमानी है , आज अपना मौलिक स्वरूप एवं गुण खोते जा रहा है । पर्यावरण की छतरी अर्थात ओजोन परत जो हमें सौर मण्डल से आने वाली घातक किरणों से बचाती है उसमें छेद होना, वातावरण में बढ़ती कार्बन डाई-आक्सॉइड की मात्रा से उत्पन्न समस्या ग्लोबल वार्मिंग, दिनो दिन घातक बीमारियों का प्रादुर्भाव व स्वास्थ्य संकट ये सब मानव के समक्ष एक विकराल दानव का रूप ले चुके हैं  जो भस्मासुर की तरह समस्त मानव जाति को लीलने को आतुर हैं, जिससे सावधान होना बहुत जरूरी है ।

जैव मण्डल में मौजूद संसाधनों में जल सर्वाधिक मूल्यवान है क्योंकि यह केवल मानव ही नहीं अपितु सभी जीवों तथा वनस्पति के लिये उपयोगी है । प्रकृति में जल तीन रूपों में विद्यमान है ठोस, तरल एवं गैस । ठोस के रूप में बर्फ जल का शुध्द रूप है । इसके बाद वर्षा का जल, पर्वतीय झीलें, नदियां एवं कुएं शुध्दता क्रम में आते हैं । धरातल पर प्रवाहित तथा झीलों, तालाबों आदि के रूप में उपलब्ध स्वच्छ जल की मात्रा केवल 7 प्रतिशत है । लेकिन बढ़ती संख्या , कुकरमुत्ते से उगे बहुमंजिला इमारतों , खेती में रसायनों का उपयोग तथा रासायनिक फैक्ट्रियों से निकला पानी नदियों, तालाबों, झरनों को प्रदूषित कर रहा है, जो  मानव जाति सहित जीवजन्तुओं के स्वास्थ्य के लिये हानिकारक साबित हो रहा है । जल को प्रदूषित करने वाले तत्व जल में मौजूद ऑक्सीजन के स्तर को कम कर जल को पीने योग्य नहीं रहने देते।

वसुन्धरा को माता का दर्जा दिया गया है जो अपने गर्भ में मौजूद तमाम आवश्यक धातुओं, अधातुओं, खनिज लवणों के सहयोग से बीज का पोषण कर खाद्य पदार्थ के रूप में विकसित करती है जो समस्त जीव जन्तुओं में जीवन का संचार करते हैं । भूमि या मिट्टी भी जल की भाँति सर्वाधिक मूल्यवान संसाधन है,क्यों कि विश्व के 71 प्रतिशत खाद्य पदार्थ मिट्टी से ही उत्पन्न होते हैं यह संसाधन इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो जाता कि सम्पूर्ण ग्लोब के मात्र 2 प्रतिशत भाग में ही कृषि योग्य भूमि है लेकिन बढ़ती जनसंख्या के पोषण के लिये खाद्यानों की बढ़ती मांग के कारण कृषि उर्वरता बढ़ाने के उद्देश्य से आधुनिकतम टेक्नोलॉजी का प्रयोग किया जा रहा है । जिसके कारण विश्व में खाद्यान्न की समस्या पर काफी हद तक काबू किया जा सका है लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि आधुनिक टेक्नोलॉजी के प्रयोग, नित नए रासायनिक उर्वरकों, रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग के कारण धरती की उर्वरता कम हो गई है। शहरों व महानगरों से निकला अपशिष्ट पदार्थ जैसे पॉलीथिन, कूड़ाकरकट, राख, औद्योगिक अपशिष्ट, दफ्ती, चमड़ा, शीशा, रबर आदि के कारण मिट्टी के प्रदूषण को तेजी से बढ़ावा दिया है ।

पृथ्वी के चारों ओर गैसों का घेरा है जिसे वायुमण्डल कहते हैं । यह वायुमण्डल विभिन्न प्रकार की गैसों का मिश्रण है जिसमें लगभग 73 प्रतिशत नाइट्रोजन, 21 प्रतिशत ऑक्सीजन एवं .03 प्रतिशत कार्बन  डाई-ऑक्साइड है । ये सभी तत्व पर्यावरण संतुलन को बनाये रखने में सहायक हैं । पृथ्वी पर मौजूद पेड़ पौधे वायुमण्डल में मौजूद कार्बन डाई ऑक्साइड को अवशोषित कर प्रकाश की उपस्थिति में एवं जड़ों के माध्यम से जल एवं आवश्यक खनिज लवण लेकर अपना भोजन तैयार करते हैं । बदले में ऑक्सीजन उत्सर्जित करते हैं यही ऑक्सीजन वायुमण्डल में मिलकर मानव जाति के लिये प्राणवायु का काम करती है। मनुष्य व जीव-जन्तु भी जब वातावरण से ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं तो कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ते हैं जो कि पेड़ पौधों के लिये भोजन बनाने में सहायक होती है । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पर्यावरण में मौजूद सभी घटक सिम्बायोटिक तरीके से एक दूसरे से सम्बध्द है और इस प्रकार पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते  है लेकिन विकसित देशों की प्रभुता की लालसा ने अंधाधुंध परमाणु हथियारों का जखीरा खड़ा करने, रासायनिक हथियार बनाने की होड़ ने मनुष्य को अंधा बना दिया है। बढ़ती जनसंख्या के कारण मनुष्य ने वनों को काटकर कंकरीट की बहुमंजिला इमारतें खड़ी कर ली । ऐसा कर उसने अपने भविष्य का नाश कर दिया । पेड़ों के कटने के कारण कार्बन डाई ऑक्साइड का संतुलन बिगड़ने से ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा मिला है। वायुमण्डल में मौजूद कार्बन डाई ऑक्साइड वातावरण के तापमान को भी नियंत्रित करती है । पेड़ों के कटने के कारण वायुमण्डल में कार्बन डाई ऑक्साइड की निरंतर बढ़ती मात्रा  के कारण वातावरण के तापमान को दिनों-दिन बढ़ाती जा रही है जो अप्रत्यक्ष रूप से वर्षा, सर्दी, गर्मी के चक्र को भी प्रभावित कर रही है । निकट भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्र का जलस्तर इस हद तक बढ़ जायेगा कि समुद्र के किनारे बसे समूचे शहरों को लील जाए तो अतिशयोक्ति न होगी ।

       पर्यावरण के इस असंतुलन की जिम्मेदार हमारी समस्त मानव जाति है । यदि समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो विनाश अवश्यंभावी है । इसीलिए वेद मनीषियों ने भी द्यूलोक से लेकर व्यक्ति तक शांति की प्रार्थना की है

 

ओं द्यौं :शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति:पृथिवी शान्तिराप:

शान्तिरोषघय: शान्तिर्वनस्पतय: शान्ति र्विश्वे देवा:

शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: सर्वंशान्ति: शान्तिरेव

शान्ति: सा मा शान्तिरेधि ॥ (शुक्ल यजुर्वेद)

 

श्रीमती राजबाला अरोड़ा

एम.एससी(बॉटनी)

बी.जे.सी,

 

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