रविवार, 5 जुलाई 2009

समलैंगिक विवाद : 'सर्वश्रेष्ठ प्राणी' की 'श्रेष्ठता' पर उठते सवाल

समलैंगिक विवाद :  'सर्वश्रेष्ठ प्राणी' की 'श्रेष्ठता' पर उठते सवाल

निर्मल रानी, email: nirmalrani@gmail.com nirmalrani2000@yahoo.co.in nirmalrani2003@yahoo.com 163011, महावीर नगर,  अम्बाला शहर,हरियाणा फोन-98962-93341

       हमारे धर्मशास्त्र हमें यह बताते हैं कि ईश्वर ने पृथ्वी पर 84 लाख विभिन्न यौनियों के रूप में प्राणियों की संरचना की है। प्राणियों की इस विशाल सूची में मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी के रूप में स्वीकार किया गया है। इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार भी अल्लाह ने इंसान को अशरंफुल मंखलूंकात के रूप में स्थान दिया है। जिसका अर्थ है प्रकृति की सभी रचनाओं में सर्वोत्तम। ंजाहिर है इंसान रूपी ऐसे विशिष्ट प्राणी से इसी प्रकार की विशिष्ट, असाधारण तथा सर्वश्रेष्ठ कारगुंजारियों की भी उम्मीद की जानी चाहिए। नि:संदेह समय व काल के अनुरूप यह सर्वश्रेष्ठ प्राणी ऐसी अनेक कारगुंजारियां अंजाम देता आ रहा है जिसने इंसान के सर्वश्रेष्ठ होने की मान्यताओं पर मोहर लगाई है तथा इसकी पुष्टि की है। परन्तु इसी के साथ-साथ कभी-कभी यह भी देखा गया है कि इसी इंसान रूपी प्राणी ने कभी-कभी अनैतिकता तथा घटियापन की उन सीमाओं को भी पार किया है जिनकी उम्मीद जानवरों से भी नहीं की जा सकती।

              कुदरत ने पृथ्वी पर जितने प्राणियों की संरचना की, उन सभी में दो प्रकार के लिंग की व्यवस्था की। एक पुल्लिंग तथा दूसरा स्त्रीलिंग। इन्हीं दोनों लिंगों के माध्यम से पूरी सृष्टि का निर्माण हुआ तथा यह सिलसिला अभी तक जारी है। बड़े आश्चर्य की बात है कि इंसान रूपी तथाकथित सर्वश्रेष्ठ प्राणी के अतिरिक्त पृथ्वी के शेष अन्य सभी 'अश्रेष्ठ' कहे जा सकने वाले प्राणियों ने तो प्रकृति द्वारा निर्धारित सभी मापदंडों की लाज रखते हुए उसके बनाए नियमों का अक्षरश: पालन किया तथा आज भी करते आ रहे हैं। परन्तु अपनी बुद्धिमता का परचम लहराने वाला इंसान ंकुदरत द्वारा निर्धारित लिंग भेद की सीमाओं तथा मापदंडों की अवहेलना करने के लिए उत्सुक दिखाई दे रहा है।

              इंसानों के मध्य से एक नए एवं अप्राकृतिक रिश्ते के सूत्रपात की ंखबरें आ रही हैं जिसे समलैंगिक रिश्तों का नाम दिया जा रहा है। इसका अर्थ है कि कोई भी पुरुष किसी अन्य पुरुष के साथ तथा कोई भी स्त्री किसी अन्य स्त्री के साथ अपनी इच्छानुसार यौन संबंध स्थापित कर सकते हैं। इस प्रकरण में सुखद बात केवल यह है कि इंसानों में ऐसी सोच तथा ऐसे विचार रखने वालों की संख्या नाममात्र है। परन्तु इसके बावजूद भारत सहित दुनिया के अन्य तमाम देशों को मिलाकर ऐसे लोगों की संख्या अब इतनी ंजरूर हो गई है कि इनकी आवांज को दुनिया सुन रही है तथा महत्व भी दे रही है।

              भारतवर्ष अपनी स्वयं की संस्कृति एवं सभ्यता रखने वाला एक प्राचीन देश है। यहां धार्मिक एवं प्राकृतिक मान्यताओं का सदैव आदर किया जाता रहा है। यही वजह है कि समलैंगिकता जैसा मनोरोग इस देश में कभी भी फल-फूल नहीं पाया। संभवत: यही वजह रही होगी जबकि विश्वव्यापी ब्रिटिश उपसाम्राज्यवाद के दौर में समलैंगिकता के विरुद्ध यदि कहीं ंकानून बनाया गया अथवा समलैंगिकता को ंगैरंकानूनी घोषित किया गया तो वह भारत ही दुनिया का पहला देश था। 1860 0 में लॉर्ड मैकॉले ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के अन्तर्गत इसे अपराध घोषित किया। परन्तु गत् 2 जुलाई को दिल्ली उच्च न्यायालय ने समलैंगिक आन्दोलन चलाने वालों के पक्ष में एक ऐसा निर्णय सुना दिया जिससे कि 'सर्वश्रेष्ठ प्राणी' की श्रेष्ठता पर वांकई एक बड़ा प्रश्चिन्ह लग गया। दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ए पी शाह तथा न्यायाधीश एस मुरलीधर की न्यायपीठ ने एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाते हुए यह ंफैसला दिया कि समलैंगिक रिश्ते बनाना धारा 377 के अन्तर्गत अपराध की श्रेणी में नहीं आता। हालांकि इस ंफैसले के साथ-साथ न्यायपीठ ने व्यस्क होने अर्थात् 18 वर्ष से अधिक की आयु होने तथा आपसी रंजामंदी होने की शतर्ें भी साथ रखी हैं। अदालत के इस ंफैसले से समलैंगिक रिश्ते रखने वाले तथा इनके प्रति हमदर्दी रखने वालों में कांफी जोश व उत्साह देखा जा रहा है। परन्तु भारत का सभ्य समाज चाहे वह किसी भी धर्म व सम्प्रदाय का क्यों न हो, उच्च न्यायालय के इस ंफैसले से हतप्रभ है।

              समलैंगिक रिश्तों को मान्यता दिलाए जाने की लड़ाई लड़ने वाले संगठन जो गत् 8 वर्षों से अपने कथित अधिकारों के लिए संघर्षरत थे, अब लुकछुप कर अपने रिश्ते स्थापित करने के बजाए और मुखरित होकर अपने संबंधों का ढिंढोरा पीटने तथा इसे प्रचारित करने की मुद्रा में हैं। यह मुट्ठीभर लोग समलैंगिक रिश्तों को लेकर अपने सामाजिक व मानवाधिकारों की बात कर रहे हैं। इनका तर्क है कि इन्हें इनकी ंखुशी व मंर्जी के अनुरूप रहने व जीने दिया जाए। अपनी निराली तथा आश्चर्यपूर्ण इच्छाओं को मनवाने की कोशिशों में लगा यह वर्ग प्राकृतिक तथा नैतिक मान्यताओं की ओर ध्यान देना ही नहीं चाहता। इस नाममात्र वर्ग को तो बस अपनी संतुष्टि तथा अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने मात्र की ही चिंता है। यह वर्ग इस ओर भी ध्यान नहीं देना चाहता कि उनकी इन हरकतों का नई युवा पीढ़ी पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

              आज दुनिया मौसम के बदलते मिंजाज को लेकर कितना चिंतित व परेशान है। इसका कारण मनुष्य द्वारा सही दिशा में आगे बढ़ते हुए विकास के मार्ग तेंजी से तय करना तथा विकास के ही नाम पर होने वाले जंगलों की कटाई, चिमनी से उठने वाले धुएं, प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों की संख्या में प्रतिदिन होने वाला इंजांफा तथा युद्ध से जूझने वाले हालात आदि हैं। इन सभी क्रियाओं के सकारात्मक तथा प्राकृतिक होने के बावजूद इस समय सृष्टि पर ऐसा ंखतरा मंडरा है जिसे ग्लोबल वार्मिंग का नाम दिया जा रहा है। कल्पना कीजिए कि यदि इंसान द्वारा इंसानी रिश्ते स्थापित करने के लिए अप्राकृतिक यौन संबंधों का सहारा लिया गया और वह भी केवल इंसान की संतुष्टि एवं उसकी ंखुशी की ंखातिर तो इस पृथ्वी पर क्या कुछ नहीं घट सकता।

              इंसान की इच्छाएं असीम होती हैं। अप्राकृतिक रूप से समलैंगिक संबंध स्थापित करने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति अपने यौन सुख की ंखातिर समलैंगिक होने के अतिरिक्त अन्य किसी स्तर तक भी जा सकता है। यदि वह किसी अन्य प्राणी के साथ यौन संबंध स्थापित करना चाहे, तब भी ऐसा इंसान अपने पक्ष में तरह-तरह के तर्क पेश कर सकता है। और यदि भविष्य में 'बदलते समय' के नाम पर ऐसे रिश्ते स्थापित किए जाने को भी सामाजिक मान्यता प्रदान कर दी गई तो निश्चित रूप से यह पृथ्वी रहने योग्य नहीं रह जाएगी। ऐसे रिश्ते समाज में कैसे विकार पैदा करेंगे, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।

              अत: ंजरूरत इस बात की है कि समलैंगिक रिश्तों को ंकायम करने वाले तथा इनकी वकालत करने वाले लोग जो निश्चित रूप से हमारे ही भाई-बहनों के समान हैं तथा हमारे ही समाज के प्रमुख अंग हैं, को इस विषय पर समझाया बुझाया जाए तथा समलैंगिकता के रूप में प्रकट होने वाले मनोरोग रूपी इस लक्षण का समुचित इलाज कराया जाए। ऐसा नहीं है कि समलैंगिकता के पक्ष में सैकड़ों तर्क प्रस्तुत करने वाला यह मुट्ठी भर वर्ग समलैंगिक रिश्तों के बाद मिलने वाले संभावित भयावह परिणामों को समझ नहीं सकेगा। यहां इस विषय पर इस्लामी इतिहास की एक घटना का उल्लेख करना उचित होगा। इस्लामी इतिहास में हंजरत लूत नामक एक पैंगम्बर हुए हैं। कहा जाता है कि एक विशेष क्षेत्र के लोग उनके समय में पुरुषों के मध्य समलैंगिक रिश्ते अत्याधिक स्थापित करते थे। ंखुदा को जब यह बात नागवार गुंजरी तब आकाशवाणी के माध्यम से खुदा ने हंजरत लूत को यह पैंगाम दिया कि वे लोगों को अपनी इस ंगैर ंकुदरती हरकतों से बांज आने को कहें अन्यथा उन्हें ंखुदा के ंकहर का सामना करना पड़ेगा। हंजरत लूत ने ंखुदा का पैंगाम आम लोगों तक पहुंचाया परन्तु आवाम ने पैंगम्बर द्वारा जारी किए गए ंखुदा के हुक्म की अनसुनी कर दी। परिणामस्वरूप उस पूरे क्षेत्र में बड़े-बड़े पत्थरों की भीषण बारिश हुई। ंखुदा के इस अंजाब के बाद लोगों की आंखें खुलीं और उन्होंने अपने दुष्कर्मों से तौबा की।

              प्राकृतिक प्रतिक्रया से सम्भवत: बेंखबर दिल्ली उच्च न्यायालय के ंफैसले ने हालांकि समलैंगिकों की हौसलाअंफंजाई की है। परन्तु ऐसा नहीं लगता कि उच्चतम न्यायालय व भारतीय संसद भी दिल्ली उच्च न्यायालय का समर्थन करेगा। समाज तथा सरकार को इस बात की पूरी कोशिश करनी चाहिए कि किसी भी प्रकार से भारत में रहने वाले समलैंगिकों को यह समझाया जा सके कि उनके द्वारा मात्र उनकी यौन संतुष्टि अथवा ंखुशी के लिए उठाया जाने वाला उनका कोई भी ंकदम न केवल प्रकृति विरोधी तथा भारतीय संस्कृति व सभ्यता का विरोधी है बल्कि देश की कर्णधार नई युवा पीढ़ी के भविष्य के लिए भी ऐसी कोशिशें अत्यन्त घातक हैं।   निर्मल रानी

 

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