रविवार, 6 जुलाई 2008

ग्रामीण परिवेश में आयुर्वेद

ग्रामीण परिवेश में आयुर्वेद
# डा0 एम आर श्रृंगी

 

       आज आयुर्वेद का पूर्णत: शुध्द स्वरूप वस्तुत: गांवों में दिखाई पड़ता है जहां भारत की 70 प्रतिशत जनता निवास करती है । इस ग्रामीण परिवेश में अन्य पध्दतियों की चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध नहीं है । यहां ग्रामीण जनता वानस्पतिक उत्पादों द्वारा ही अपनी चिकित्सा करती है, जो आयुर्वेद का एक लघु स्वरूप माना जा सकता है ।

       यह चिकित्सा गांव की दादी-नानी के नुस्खें द्वारा भोजन के रूप में प्राप्त होती है । भोजन के रूप में नित्य उपयोगी-हल्दी, धनिया, मेथी, अजवायन, प्याज, लहसुन, अदरक, मिर्च,लौंग, इलायची, तेजपत्ता, दालचीनीद्ग, हरड़,बहेड़ा, आंवला, हींग, सौंठ, सौंफ, मधु और घी आदि का विभिन्न प्रकार से उपयोग करना आयुर्वेद चिकित्सा का अभिन्न अंग है । आज आयुर्वेद औषध शुध्द स्वरूप में गांवों एवं जंगलों में ही प्राप्त है, जिसका प्रयोग कर ग्रामीण जनता स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करती है । गांवों में सर्वसुलभ औषधियां जैसे नीम, सठिजन, वट, गूलर, पीपल आदि अधिकांशत: औषधियों के लिए आयुर्वेद ग्रामीण परिवेश पर ही निर्भर हैं । आयुर्वेद चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विज्ञान जीवन का एक मूलभूत अंग है ।

ग्रामीण परिवेश में रोग

       ग्रामीण परिवेश में चिकित्सा एवं स्वास्थ्य  के बारे में कम जानकारी के कारण आज ग्रामीण लोग विभिन्न प्रकार के रोगों से ग्रसित हैं ।

कुपोषण से होने वाले रोग

       क्वासिओरकोर, मेरमस, पेलाग्रा, बेरीबेरी बालशोष, उत्फुल्लिका (न्यूमोनिया), रतौंधी, रिकेट्स ओस्टियोपोरोसिस, स्कर्वी, गंजापन, बालों का सफेद होना ।

जल प्रदूषण से होने वाले रोग

       अतिसार, प्रवाहिका, नारू, टाईफाइड, मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया आदि रोग।

वायु प्रदूषण से होने वाले रोग

       कास श्वास, तपेदिक, पीनस, इन्फलूएंजा, जुकाम ।

आयरन की कमी से

       एनिमिया, सिकिलसेल एनिमिया । आयरन की कमी से होने वाले रोगों के उपचारार्थ भारत सरकार विभिन्न कार्यक्रम आयोजित कर रही है ।

अनियमित दिनचर्या से होने वाले रोग

       अम्लपित्त, आमवात, संधिपात अरूचि, अग्मांध, ल्यूकोरिया, हृदयरोग, उच्च रक्तचाप, धमनी प्रतिचय आदि रोग ।

पथ्य-अपथ्य

       पथ्य-उसे कहते हैं जो मानव शरीर के स्वास्थ्य के लिए हितकारी हो तथा स्वास्थ्य को बनाये रखे । पथ्य -उसे कहते हैं जो मानव शरीर के स्वास्थ्य के लिए अहितकारी हो । जिसके सेवन से मनुष्य विभिन्न रोगों से ग्रसित हो जाता है ।

       पथ्य-अपथ्य की उपयोगिता दैनिक जीवन के अलावा मनुष्य को रोग होने पर रोग के उपचारार्थ भी आवश्यक है तथा रोगी के स्वस्थ होने पर भी यदि अपथ्य का प्रयोग मनुष्य करे तो वह वापस रोग को प्राप्त कर लेता है । अत: स्वस्थ मानव जीवन में रोगों से दूर रहने क लिए पथ्य-अपथ्य स्वरूप वैरोधिक आहार से दूर रहना चाहिए ।

       मनुष्य के व्याधि ग्रस्त होने पर आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान में प्रत्येक रोग में रोगानुसार पथ्य-अपथ्य की पालना की जाती है । पूर्ण चिकित्सा अब ही सफल हो पाती है जब रोग के अनुसार पथ्य-अपथ्य की पालना की जाये । अत: प्रत्येक रोग में क्या आहार विहार करना चाहिए अर्थात क्या खाना चाहिए । क्या अहितकर होने के कारण छोड़ा चाहिए । ये सभी पथ्य-अपथ्य के अंतर्गत आते हैं ।

आयुर्वेद में स्वस्थ वृत

       मनुष्य अपने स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए जो क्रिया-कलाप रोजाना करता है उसे स्वस्थ वृत के नाम से जाना जा है । राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान में स्वस्थवृत का अलग से विभाग है, जहां विभिन्न शोध कार्य संचालित हो रहे हैं । स्वस्थवृत विभाग में आज निम्नक्रमों द्वारा स्वास्थ्य लाभ प्रदान किया जा रहा है ।

1. योग-अष्टांग योग-यम नियम, आसन, प्राणायाम, अल्पाहार धारणा, ध्यान समाधि 2. प्राणायाम, 3. जल नेति, 4. धौति क्रिया, 5. त्राटक, 6. कपाल भांति, 7. कुंजजल, 8. सूत्रनेति, 9. शंख प्रखालन ।

       इन क्रियाओं द्वारा कठिन एवं असाध्य रोगों का भी उपचार हो जाता है । इनका प्रयोग रोग एवं रोगी के अनुसार विभिन्न अनुभवी चिकित्सों द्वारा रोगों के उपचारार्थ एवं स्वास्थ्य संवर्धन के लिए राष्ट्रीय आयुर्वेद  संस्थान चिकित्सालय में किया जाता है ।

त्रऽतुचर्या

       आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान में त्रऽतुओं का विशेष महत्व माना गया है क्योंकि त्रऽतुओं के अनुसार ही दोष स्वत: संचय, प्रकोर्ष, प्रसर को प्राप्त होते हैं । अत:  त्रऽतुओं के अनुसार ही त्रऽतुकालीन मौसमी बीमारियां पैदा होती हैं । यदि त्रऽतुओं के अनुसार ही मनुष्य का खान-पान, रहनसहन हो तो रोगों को प्राप्त नहीं करेगा ।

त्रऽतुकाल दो माने गये हैं

       आदान काल            विसर्ग काल

       शिशिर त्रऽतु            वर्षा त्रऽतु

       बसंत त्रऽतु             शरद त्रऽतु

       ग्रीष्म त्रऽतु            हेमन्त त्रऽतु

       इस प्रकार संक्षेप में त्रऽतुएं छ: मानी गई हैं । आदान काल में मनुष्य सूर्य उत्तरायण होने के कारण तथा सूर्य के द्वारा बल का शोषण होने से बल का क्षय होता है अर्थात मनुष्य हीन बल को प्राप्त होता है ।

       विसर्ग काल में सूर्य दक्षिणायन में होने के कारण तथा चन्द्रमा के द्वारा अपनी किरणों से तृप्त करने के कारण मनुष्य क्रमश: बल को प्राप्त करता है, अर्थात मनुष्य विसर्गकाल में उत्तमबल वाला होता है ।

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# एसोसिएट प्रोफेसर, राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान,  जयपुर

 

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