कुरान शरींफ: शंकाएं तथा समाधान
तनवीर जांफरी (सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी, शासी परिषद)
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इस्लाम धर्म में सर्वोच्च धर्मग्रन्थ ंकुरान शरींफ को ही माना जाता है। इसे सबसे पवित्र धार्मिक ग्रन्थ भी इसलिए कहा जाता है क्योंकि मुसलमानों में यह मान्यता है कि ंकुरान शरींफ में दर्ज एक-एक आयत तथा एक-एक शब्द केवल ंखुदा (अल्लाह) द्वारा अपने रसूल (हंजरत मोहम्मद) को दिए गए वह संदेश हैं जोकि अल्लाह ने अपने रसूल के माध्यम से आम लोगों तक पहुंचाने के लिए रसूल को भेजे थे। लगभग 1500 वर्ष पूर्व जब ंकुरान की आयतें एक के बाद एक 'वही' (आकाशवाणी) के माध्यम से हंजरत रसूल पर नांजिल (आवतरित) होतीं, उसी समय हंजरत मोहम्मद के सहयोगी मोहम्मद के मुंह से ंखुदा के उन निर्देशों व आदेशों को सुनकर उन्हें कलमबन्द कर लेते। चूंकि यह घटना उस समय अरब देश में घट रही थी, अत: वार्तालाप अथवा लेखनी का माध्यम भी अरबी भाषा ही बनी। और यही वजह है कि ंकुरान शरींफ मूल रूप से अरबी भाषा में ही संकलित किया गया।
जिस प्रकार इस्लाम के उदय के समय ही इस्लाम पर सबसे बड़ा आतंकवादी हमला स्वयं एक मुस्लिम बादशाह द्वारा हंजरत मोहम्मद के ही परिवारजनों पर किया गया था, ठीक उसी प्रकार ंकुरान शरींफ को लेकर भी अनेक भ्रांतियां ंकुरान शरींफ के संकलित होने से पहले ही अरब देश में पैदा होने लगी थीं। उस समय जहां हंजरत मोहम्मद को ंखुदा का रसूल मानने वाले तमाम लोग हंजरत मोहम्मद के मुंह से निकलने वाली आयतों को कलाम-ए-ंखुदा समझते, वहीं हंजरत मोहम्मद से विरोध रखने वाले अनेकों लोग ऐसे भी थे जो यह मानने को तैयार नहीं होते थे कि यह ंखुदा की भेजी हुई आयतें हैं बल्कि वे इसे मोहम्मद द्वारा रचा गया ंकुरान ही मानते थे। दुर्भाग्यवश ंकुरान शरींफ की आलोचना तथा विरोध का यह सिलसिला उसी प्रकार से आज भी जारी है। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि दुनिया में बढ़ती हुई आतंकवादी घटनाएं तथा अधिकांशतय: इन घटनाओं में मुसलमानों का शामिल होना इस्लाम व कुरान के आलोचकों को इस बात के लिए सुनहरा अवसर प्रदान कर रहा है कि वे इस्लाम विशेषकर इस्लामी पवित्र ग्रन्थ ंकुरान शरींफ को अपनी आलोचना के निशाने पर ले सकें। आज यह आरोप सीधे तौर पर लगाया जा रहा है कि ंकुरान शरींफ नंफरत, लड़ाई-झगड़ा, वैमनस्य व मरने-मारने का मार्ग दिखाता है। आईए मोटे तौर पर हम भी झांकने का प्रयास करें कि आंखिर ंकुरान शरींफ कहता क्या है?
सर्वप्रथम तो इस भ्रान्ति को ही मुस्लिम धर्मगुरुओं को दूर करना चाहिए कि ंकुरान शरींफ केवल मुसलमानों का ही धर्मग्रन्थ नहीं बल्कि पूरी मानवता को संदेश देने वाला तथा पूरी मानवता के लिए आचार संहिता निर्धारित करने वाला एक धर्म ग्रन्थ है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अल्लाह या ईश्वर सभी का रचयिता है तथा सबका पालने वाला है। जिस प्रकार उसकी सभी बरकतें, सभी नेमतें तथा उसके द्वारा दी जाने वाली सभी सुख सुविधाएं जैसे हवा, पानी, धूप, छाया आदि पूरी मानवता के लिए होती हैं, ठीक उसी प्रकार उस अल्लाह के द्वारा दिए जाने वाले सभी निर्देश व हिदायतें भी सम्पूर्ण मानवता के लिए हैं न कि किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष के लिए। या तो मुस्लिम धर्मगुरुओं को यह प्रमाणित करना पड़ेगा कि अल्लाह भी 'मुसलमान' है, फिर तो ंकुरान शरींफ को मात्र मुसलमानों का धर्मग्रन्थ माना भी जा सकता है। और यदि ऐसा नहीं है तो ंकुरान शरींफ पर मुसलमानों का एकाधिकार अथवा 'कॉपीराइट' होना कम से कम मेरी समझ में तो हरगिंज नहीं आता।
ंकुरान शरींफ में इन्सानों को अथवा समाज को तीन भागों में विभाजित किया गया है। इनमें एक तो वे हैं जो ला इलाहा इल्लल्लाह के दायरे में आते हैं तथा मुसलमानों में शरीक हैं अर्थात् एक ईश्वर पर विश्वास रखते हैं। इन्हें ंकुरान शरींफ में मोमिन कहकर संबोधित किया गया है। दूसरे वे लोग हैं जो ला इलाहा इल्लल्लाह के दायरे में तो हमारे शरीक ंजरूर हैं परन्तु यह स्वयं भी अहले-किताब (पुस्तकधारी) हैं। इनमें हम यहूदियों व ईसाईयों आदि को गिन सकते हैं। और तीसरा वर्ग वह है जोकि न तो ला इलाहा इल्लल्लाह कहता है, न ही हमारे किसी भी अंकीदे में हमारा शरीक है। उन्हें ंकुरान शरींफ में कांफिर कहकर सम्बोधित किया गया है। अब यहां प्रश् यह है कि इस प्रकार के वर्गीकरण के बाद ंकुरान शरींफ इन तीनों वर्गों के लिए अलग-अलग और आगे क्या दिशा निर्देश देता है।
प्रथम वर्ग अर्थात् मोमिनों के लिए ंकुरान शरींफ कहता है कि 'इन्नमल मोमिनीने इंकवा' अर्थात् सभी मोमिनीन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक दूसरे के भाई हैं। परन्तु बड़े दु:ख का विषय है कि ंकुरान शरींफ के इन्हीं दिशा निर्देशों की धाियां आज इन्हीं तथाकथित मोमिनों व मुसलमानों द्वारा ही उड़ाई जा रही हैं। इरांक, अंफंगानिस्तान व पाकिस्तान इसके आज के सबसे बड़े उदाहरण हैं। दूसरे वर्ग अर्थात् एक ईश्वर को मानने वाले पुस्तकधारी वर्ग के लिए ंकुरान शरींफ के 'सूरए आले इमरान' में दर्ज है कि 'ऐ अहले किताब जब हम सब एक ही अल्लाह के मानने वाले हैं तो क्यों न 'इत्तेहाद' (संगठित होकर) के साथ मिलजुल कर दुनिया से बुराई मिटाने का काम करें।' दुर्भाग्यवश आज ईसाईयों व यहूदियों के रूढ़ीवादी वर्ग द्वारा इस्लाम व ंकुरान शरींफ पर नंफरत फैलाने तथा इसपर असहयोग की भूमिका में रहने का आरोप लगाया जाता है। परन्तु ंकुरान शरींफ के माध्यम से दिया जाने वाला उपरोक्त संदेश यह समझ पाने के लिए पर्याप्त है कि इस्लाम परस्पर सहयोग का कितना बड़ा हिमायती है।
अब रहा तीसरा वर्ग जिसे ंकुरान शरींफ कांफिर कहकर सम्बोधित करता है। इस वर्ग में वे लोग आते हैं जो न तो एक अल्लाह को मानते हैं, न ही रसूल को, न ही ंकुरान शरींफ को। अरबी शब्द कांफिर का शाब्दिक अर्थ है 'इन्कार करने वाला'। अरब में जब हंजरत मोहम्मद ंकुरान शरींफ का संदेश आम लोगों तक पहुंचा रहे थे तथा आम लोगों को यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि सबका मालिक एक ही अल्लाह है, उस समय बहुत से लोग ऐसे थे जो हंजरत मोहम्मद के इस कथन से सहमत नहीं थे तथा उनकी लगभग प्रत्येक बात को मानने से इन्कार करते थे। ऐसे लोगों के लिए ंकुरान शरींफ के 30वें पारे में अल्लाह ंफरमाता है 'ंकुल या अईयोहल कांफिरूना ला बुदूना ताबेदून', ऐ रसूल कह दीजिए कि ऐ कांफिरों हम उसकी इबादत नहीं करते जिसकी तुम करते हो। और न तुम उसकी इबादत करने वाले हो, जिसकी हम इबादत करते हैं। लिहांजा 'लकुम दीनकुम वालेदीन' अर्थात् तुमको तुम्हारा दीन मुबारक और हमें हमारा। कांफिरों (इन्कार करने वालों) के लिए दिए जाने वाले इस संदेश से कहीं भी यह ंजाहिर नहीं होता कि ंकुरान शरींफ इस्लाम पर न चलने वालों को ंकत्ल कर देने अथवा उनपर ंजुल्म ढाने का आदेश देता है। हां इतना ंजरूर है कि कई मुस्लिम शासकों ने ंकुरान शरींफ की ंगलत व्याख्या का सहारा अपने साम्राज्य को बढ़ाने, बचाने या उसे स्थापित करने के लिए ंजरूर लिया। और यही काम आज भी जारी है। यही वजह है कि इस्लाम पर तथा ंकुरान शरींफ पर उंगली उठने का कारण कल भी यही क्रूर मुस्लिम शासक थे और आज भी ऐसे कई मुस्लिम धार्मिक ठेकेदार, आतंकी सरगना तथा क्रूर शासक ंकुरान शरींफ की शिक्षाओं को बदनाम करने में लगे हैं।
अत: आज मुस्लिम उलेमाओं को विश्वस्तर पर यह समझने और समझाने की ंजरूरत है कि ंकुरान के संदेश दरअसल ंकिसके लिए हैं? ंकुरान शरींफ स्वयं किसका है और किसके लिए है तथा इनमें संकलित ंखुदा के पैंगाम के वास्तविक अर्थ क्या हैं? निश्चित रूप से ंकुरान में बुरे लोगों के विरुद्ध सख्ती बरतने तथा उन्हें नियंत्रण में रखने की बातें कही गई हैं। परन्तु यह बातें केवल बुरे लोगों के लिए हैं न कि किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष के लोगों के लिए। जिस प्रकार कोई भी देश, कोई भी शासन-प्रशासन अथवा परिवार अपने समाज हेतु कोई आचार संहिता तैयार करता है तो निश्चित रूप से उसमें बुराई करने वालों के लिए संजा अथवा सख्ती किए जाने का ही प्रावधान होता है। बुराई करने वालों को दुनिया में कहीं भी सम्मानित नहीं किया जाता। ठीक उसी प्रकार ंकुरान शरींफ में भी कुछ स्थानों पर बुराईयों तथा बुराई में शरीक लोगों से निपटने के कुछ तरींके बताए गए हैं परन्तु इसमें किसी वर्ग अथवा सम्प्रदाय विशेष को निशाना ंकतई नहीं बनाया गया।
लिहांजा आज वक्त क़ा तंकांजा है कि स्वयं को ंकाबिल समझने वाले तथा इस्लाम को बदनाम होने से बचाने की इच्छा रखने वाले मुस्लिम बुद्धिजीवी व धर्मगुरु खुलकर सामने आएं तथा ंकुरान शरींफ से संबंधित शंकाओं को दूर करने का समाधान खोजने का प्रयास करें। यदि यथाशीघ्र ऐसी व्यवस्था मुस्लिम धर्माधिकारियों द्वारा नहीं की गई तो न सिंर्फ इस्लाम बल्कि इस्लामी धर्मग्रन्थ समझे जाने वाले ंकुरान शरींफ पर उंगलियां उठने का यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा और आए दिन भारत व दुनिया में अन्यत्र होने वाले आतंकी हमलों में मुसलमानों की शिरकत ंकुरान शरींफ को बदनाम करने में सहायक सिद्ध होती रहेगी। तनवीर जांफरी
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