संकीर्ण सोच रखने वाले दलों व नेताओं से सावधान
निर्मल रानी
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भारतीय लोकतंत्र में समय-समय पर आयोजित होने वाले विभिन्न राज्यों के चुनावी पर्व तथा लोकसभा के आम चुनाव के रूप में होने वाला चुनावी महापर्व हम भारतीय मतदाताओं को आमतौर पर 5 वर्षों में एक बार यह अवसर देता है कि हम देशहित, राष्ट्र के विकास, देश की एकता व अखंडता, साम्प्रदायिक सद्भाव आदि मुद्दों को सामने रखकर अपने-अपने क्षेत्रों से लोकसभा अथवा विधानसभा के प्रतिनिधियों का चुनाव करें। अभी मात्र 4 माह पूर्व ही देश के मतदाताओं ने देश को एक नई केंद्रीय सरकार चुन कर दी है। और एक बार फिर हरियाणा, महाराष्ट्र तथा अरुणाचल प्रदेश में आगामी 13 अक्तूबर को होने जा रहे विधानसभा के आम चुनाव भारतीय मतदाताओं से उनकी राय (मत) जानने जा रहे हैं।
देश की स्वतंत्रता से लेकर अब तक होने वाले लगभग सभी चुनावों के दौरान आमतौर पर यह देखा जाता है कि एक ओर मतदाता जहां राष्ट्रीय हितों को मद्देनंजर रखकर मतदान करने की कोशिश करता है, वहीं साम-दाम-दंड-भेद से अपने चुनाव जीतने का हौसला रखने वाले कुछ स्वार्थी प्रवृत्ति के नेता अपने राजनैतिक स्वार्थ के चलते मतदाताओं को गुमराह करने से भी बांज नहीं आते। मात्र अपने पक्ष में मतदान करवाने के लिए कहीं जातिवाद का सहारा लिया जाता है तो कहीं क्षेत्रवाद को हवा देने का काम किया जाता है। कहीं क्षेत्रीय भाषा को हथियार बनाकर समाज को विभाजित करने का प्रयास किया जाता है तो कहीं स्थानीय लोगों की बेरोंजगारी जैसे संकीर्ण मुद्दों का ढोंग रचकर समाज में क्षेत्रीयता का ंजहर घोलने का काम किया जाता है। ंजाहिर है ऐसे सभी प्रयास नेताओं द्वारा केवल इसलिए किए जाते हैं ताकि वे समाज को क्षेत्र के नाम पर बांटने में सफल हों। मतदाताओं की भावनाओं को भड़क़ा सकें तथा इन बातों का लाभ उठाकर अपने पक्ष में मतदान करने हेतु मतदाताओं को उकसा सकें।
उपरोक्त परिस्थितियों में भारतीय मतदाताओं का यहर् कत्तव्य बन जाता है कि वे किस प्रकार अपने आप को इन अवसरवादी एवं संकीर्ण विचार रखने वाले नेताओं के हथकंडों से बचाकर रखें तथा राष्ट्रहित एवं राष्ट्रीय विकास तथा देश की एकता व अखंडता को सर्वोपरि रखकर मतदान में हिस्सा लें। सत्ता के भूखे भेड़ियों की संकीर्ण राजनीति का नंगा नाच इन दिनों महाराष्ट्र में खुलेआम देखा जा रहा है। इसे हम भारत सरकार की कमंजोरी कहें अथवा सहिष्णुता या फिर इसे बुंजदिली का नाम दें। परन्तु यह सच है कि देश को तोड़ने की कोशिश में लगे अलगाववाद की शैली की राजनीति अपनाने वाले ठाकरे ब्रदर्स कांफी लंबे समय से महाराष्ट्र में अपनी इसी प्रकार की राजनीति चला रहे हैं। स्वयं को हिंदुत्ववादी राजनीति का समर्थक बताने वाला ठाकरे परिवार मात्र मतों की ंखातिर हिंदुत्व की भी बात करता है। परन्तु जब बात भाषा की आती है तो इन्हीं ढोंगी हिंदुत्ववादियों को हिंदी भाषा से नंफरत तथा मराठी भाषा से प्यार हो जाता है।
अभी पिछले दिनों देश के एक जाने-माने पत्राकर राजदीप सरदेसाई मुंबई में राज ठाकरे से मिलने जा पहुंचे। आमतौर पर अंग्रेंजी भाषा में पत्रकारिता करने वाले सरदेसाई ने राज ठाकरे के समक्ष हिंदी भाषा में साक्षात्कार देने का प्रस्ताव रखा। परन्तु महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के इस नेता ने सरदेसाई को हिंदी भाषा में साक्षात्कार देने से सांफ मना कर दिया। ठाकरे ने केवल मराठी भाषा में ही अपनी बात कहने पर पूरा ंजोर दिया। परिणामस्वरूप सरदेसाई को राज ठाकरे से लिया जाने वाला साक्षात्कार स्थगित करना पड़ा। यह घटना हमें क्या दर्शाती है? एक भारतीय पत्रकार अपने पेशे की ंजिम्मेदारी निभाते हुए यह चाह रहा था कि महाराष्ट्र की सत्ता पर दावेदारी जताने वाले राज ठाकरे जैसे नेताओं के विचारों को टीवी चैनल के माध्यम से पूरा देश जाने। सरदेसाई ने इसीलिए हिंदी भाषा का साक्षात्कार में प्रयोग किए जाने का प्रस्ताव रखा। परन्तु राजदीप सरदेसाई की सोच के ठीक विपरीत राज ठाकरे की इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं थी कि उनके विचारों को पूरा देश भी जाने। उनकी नंजरें तो केवल महाराष्ट्र के विधान-भवन पर टिकी हुई हैं। ठाकरे को तो केवल मराठा मतों को आकर्षित करना है। इसके लिए उन्हें चाहे उत्तर भारतीयों को गालियां देनी पड़ें, उनके साथ मारपीट करनी पड़े अथवा अपमानित करना पड़े या फिर राष्ट्रभाषा हिंदी का अपमान ही क्यों न करना पड़े, उन्हें यह सब स्वीकार है। क्योंकि उनकी राजनैतिक सोच अत्यन्त सीमित व संकीर्ण है। बेशक उनकी बातों में यह नंजर आता है कि वे मराठा हितों अथवा मुंबई वासियों के हितों की बातें कर रहे हैं। परन्तु दरअसल ऐसा नहीं है। उनकी ऐसी मीठी बातों के पीछे का रहस्य केवल यही है कि वे मराठा मतों के सहारे महाराष्ट्र की विधानसभा में अपनी पार्टी का झण्डा फहराना चाहते हैं। और अपने इस एकमात्र लक्ष्य को अर्जित करने के लिए ही उनके द्वारा अलगाववाद, हिंदी भाषा का विरोध, उत्तर भारतीयों का विरोध अथवा उन्हें अपमानित करना तथा समाज में विघटन पैदा करने जैसे नापाक हथकंडों का सहारा लिया जा रहा है।
देश में एक दो नहीं बल्कि दर्जनों ऐसे 'ठाकरे' राजनीति में सक्रिय दिखाई देंगे जो इसी प्रकार की गणित तथा योग के आधार पर अपनी राजनैतिक दुकानदारियां चला रहे हैं। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक अपनी क्षेत्रीय, सीमित व संकीर्ण सोच से देश की एकता व अखंडता के स्वच्छ वातावरण को प्रदूषित करने वाले यह नेता सक्रिय देखे जा सकते हैं। सत्ता की लालच ने इन्हें इस हद तक अंधा कर दिया है कि इन्हें क्षेत्रीयता तथा सामाजिक संकीर्णता, राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय एकता व अखंडता पर भारी नंजर आ रही है। अपनी पारिवारिक राजनैतिक पृष्ठभूमि, अपने धन तथा शक्ति आदि के बल पर ऐसे कई नेता परिवार देश के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी अच्छी ंखासी पैठ बनाए देखे जा सकते हैं। कई जगहों पर तो इन्हें सत्ता पर ंकाबिंज भी देखा जा सकता है। ऐसे में देश के राष्ट्रप्रेमी जागरूक मतदाताओं का यहर् कत्तव्य है कि वे अत्यन्त सूक्ष्म्ता के साथ यह देखें कि क्षेत्रीय सत्ता हथियाने के बाद यही नेता आंखिर अपने क्षेत्र या राज्य में किस एजेंडे पर काम कर रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि देश के विकास को प्राथमिकता देने के बजाए पूरे प्रदेश में 'हाथियों' के पार्कों की स्थापना करने को ही मुख्य एजेंडा बनाया जा रहा हो? कहीं ऐसे राजनेता सरकारी ंखंजाने से धन निकाल कर अपनी स्वयं की मूर्तियां राज्य में लगवाकर प्रदेश में स्थायी तौर पर अपनी राजनैतिक पहचान छोड़ने का तो प्रयास नहीं कर रहे?
आज हमारा देश लगभग सभी बाहरी सीमाओं की ओर से ंखतरे का सामना कर रहा है। बाहरी दुश्मन से निपटना तो हमारे लिए फिर भी उतना कठिन नहीं है जितना कि इन 'स्वदेशी' तांकतों से निपटना जोकि भारतीय नागरिक एवं भारतीय नेता होने का दम भरते हुए भी विघटनकारी एवं अलगाववादी राजनीति को हवा देते रहते हैं। क्षेत्रीय सत्ता पर ंकाबिंज होने की इनकी लालसा भले ही इन्हें समाज को धर्म-जाति, क्षेत्र, भाषा आदि के नाम पर विभाजित करने को मजबूर क्यों न करती हो, परन्तु हम भारतीय मतदाताओं का तो कम से कम अवश्य यहर् कत्तव्य बनता है कि हम चुनावरूपी अवसर आने पर इन संकीर्ण मानसिकता रखने वाले सभी नेताओं व दलों को अपने मतदान के द्वारा यह सचेत करें कि देश की एकता व अखंडता, राष्ट्र का समग्र विकास जैसी राष्ट्रव्यापी बातें अधिक ंजरूरी हैं न कि संकीर्ण, सीमित व क्षेत्रीय सोच को हवा देने वाली बातें। ंजाहिर है भारतीय मतदाताओं को अपना यह पक्ष मतदान के माध्यम से ही रखने का अवसर प्राप्त होता है। देशहित को राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में सोचने वाले मतदाताओं को चुनावरूपी इन शुभ अवसरों को हरगिंज गंवाना नहीं चाहिए।
निर्मल रानी