एक था राजा......
निर्मल रानी 163011, महावीर नगर, अम्बाला शहर,हरियाणा
देश के पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह गत् 27 नवम्बर को 77 वर्ष की आयु में अपनी जीवन यात्रा समाप्त कर हम सभी को अलविदा कह गए। 25 जून 1930 को इलाहाबाद में जन्मे तथा बाद में राजा मांडा के नाम से प्रसिद्ध हुए वी पी सिंह को गत् 17 वर्षों से रक्त कैंसर जैसा गंभीर रोग था। परन्तु इसके बावजूद भी वे किसानों तथा कामगारों से जुड़ी समस्याओं को लेकर अब भी आन्दोलन करते दिखाई देते थे। श्रीमती इंदिरा गांधी के किसी समय अत्यधिक वंफादार समझे जाने वाले वी पी सिंह को राजा साहब कहकर भी पुकारा जाता था। राष्ट्रीय राजनीति में सर्वप्रथम उनका परिचय इंदिरा जी ने ही उन्हें अपने मंत्रिमंडल में वाणिज्य राज्य मंत्री का पद देकर कराया था। इसके पश्चात आपातकाल के दौरान भी जब बाबू जगजीवन राम व हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे वरिष्ठ कांग्रेस नेता श्रीमती गांधी का साथ छोड़कर चले गए थे, उस समय वी पी सिंह, इंदिरा जी के साथ डटकर खड़े रहे। ंजाहिर है राजा साहब को इसका पुरस्कार भी अवश्य मिलना था। 1979में जब कांग्रेस पुन: सत्ता में आई उस समय इंदिरा जी ने राजा साहब को उत्तर प्रदेश की कांग्रेस पार्टी में सक्रिय किया तथा उन्हें उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के उपाध्यक्ष का पद सौंपा। कालान्तर में उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस भारी बहुमत से विजयी हुई। और इस प्रकार श्रीमती इंदिरा गांधी ने वी पी सिंह को अपनी पहली पसंद के रूप में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री नियुक्त किया।
नि:सन्देह राजा साहब उत्तर प्रदेश के एक सफल मुख्यमंत्री के रूप में अपना शासन चला रहे थे। परन्तु इसमें भी कोई शक नहीं कि वी पी सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल का दौर प्रदेश की ंकानून व्यवस्था के लिए एक बड़ा ही चुनौतीपूर्ण दौर था। यही वह दौर था जबकि बेहमई कांड हो चुका था तथा फूलन देवी चंबल की दस्यु सरगना के रूप में सामने आ चुकी थी। इसी दौर में बांदा तथा चित्रकूट के जंगलों में छुपे रहने वाले ददुआ डाकू का पूरा आतंक व्याप्त था। यहां तक कि इन्हीं के मुख्यमंत्रित्वकाल में ंकानून व्यवस्था तथा अराजकता ने अपना इतना विकराल रूप धारण कर लिया था कि स्वयं मुख्यमंत्री के अपने भाई सी एस पी सिंह जोकि उस समय इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश थे, की भी बांदा के जंगलों में डाकुओं द्वारा घात लगाकर हत्या कर दी गई। इस हत्या ने वी पी सिंह को विचलित कर दिया। इसके पहले कि विपक्ष यह कहने का साहस करता कि वी पी के शासनकाल में उन्हीं के भाई की डाकुओं द्वारा हत्या की गई है, ऐसे में आम नागरिकों की सुरक्षा की कौन गारंटी ले। परन्तु विपक्ष को यह कहने का अवसर देने के बजाए राजा साहब ने तत्काल मुख्यमंत्री के पद से स्वयं ही त्यागपत्र दे दिया। हालांकि राजा साहब का अचानक त्यागपत्र देना इंदिरा जी को अच्छा नहीं लगा। ऐसा इसलिए था क्योंकि मुख्यमंत्री का पद त्यागने से पूर्व राजा साहब ने इंदिरा जी को अपने इस ंफैसले से अवगत नहीं कराया था।
बहरहाल, समय बीता। स्वयं इंदिरा जी की भी हत्या हो गई। देश में आम चुनाव हुए। राजीव गांधी राजनीति में सक्रिय हुए तथा उनके राजनीति में पदार्पण करते ही उन्हें प्रधानमंत्री का पद मिल गया। उधर इसी दौरान वी पी सिंह भी इलाहाबाद संसदीय क्षेत्र (56) से लोकसभा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। राजीव गांधी ने इंदिरा जी की हत्या के बाद वी पी सिंह को पहले अपने मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री के पद पर सुशोभित किया। इस दौरान बड़े औद्योगिक घराने तथा आयकर आदि के कुछ मामलों को लेकर राजा साहब का राजीव गांधी से कुछ मतभेद शुरु हो गया। इसके पश्चात राजीव गांधी ने अपने अगले मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री का पद इनसे लेकर इन्हें रक्षा मंत्रालय का पदभार सौंप दिया। रक्षा मंत्री बनते ही राजा साहब को बोंर्फोस तोप सौदे संबंधी कुछ जानकारियां प्राप्त हुई बताई जाती हैं।
बस फिर क्या था। वी पी सिंह को तो मानो अपने लक्ष्य तक पहुंचने का एक सटीक, प्रभावी तथा मंजबूत रास्ता मिल गया। बिना समय गंवाए वी पी सिंह ने सीधे राजीव गांधी व उनके कुछ सहयोगियों पर बोंर्फोस तोप सौदे में दलाली खाने जैसे गंभीर आरोप लगा दिए। इसी के साथ-साथ इन्होंने पहले रक्षा मंत्री का पद छोड़ा फिर लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दिया और बाद में कांग्रेस पार्टी भी छोड़ दी। राजीव गांधी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने में उस समय जिन तीन प्रमुख नेताओं ने वी पी सिंह का साथ दिया, उनमें मुंफ्ती मोहम्मद सईद, अरुण नेहरु व आरिंफ मोहम्मद ंखान के नाम शामिल हैं। इन सभी ने मिलकर कांग्रेस पार्टी पर यहां तक कि सीधे राजीव गांधी पर निशाना साधना शुरु कर दिया। इस राजनैतिक घटनाक्रम को लेकर पूरे देश के कांग्रेस विरोधी दल अत्यन्त उत्साहित हुए। उन्हें एक प्रकार से कांग्रेस का 'विभीषण' मिल गया। उधर भीतर ही भीतर राजा साहब भी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर अपनी नंजरें गड़ाकर अपनी राजनैतिक शतरंज बिछाने लगे।
सर्वप्रथम कांग्रेस छोड़ने के बाद वी पी सिंह ने इलाहाबाद की उस संसदीय सीट से चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी जोकि अमिताभ बच्चन द्वारा बोंर्फोस मामले में अपनी छींटाकशी से तंग आकर ंखाली की गई थी। यहां याद रहे कि इंदिरा जी की हत्या के पश्चात जब अपने निर्धारित समय पर लोकसभा चुनाव 1985 में हुए, उस समय राजीव गांधी के परम सहयोगी के रूप में अमिताभ बच्चन ने भी राजनीति के क्षेत्र में अपना पहला ंकदम रखा था। इलाहाबाद से चूंकि विपक्ष के उम्मीदवार के रूप में ंकद्दावर पूर्व कांग्रेसी नेता हेमवती नंदन बहुगुणा चुनाव मैदान में उतर रहे थे इसलिए कांग्रेस को भी उन्हें पराजित करने हेतु किसी विशेष उम्मीदवार की ही ंजरूरत थी। ऐसे में पार्टी ने अमिताभ बच्चन को बहुगुणा जी के विरुद्ध चुनाव मैदान में उतारा। अमिताभ बच्चन भारी मतों से विजयी हुए। राजनैतिक पंडितों का मानना है कि अमिताभ बच्चन का कांग्रेस पार्टी से विजयी होना ंखासतौर पर इलाहाबाद से लोकसभा के लिए उनका चुना जाना और इन सबके अतिरिक्त राजीव गांधी से उनकी घनिष्ठता तथा प्रधानमंत्री निवास में अमिताभ बच्चन का बेरोकटोक आना जाना भी राजा साहब के हलंक से नीचे नहीं उतर पाता था। बोंर्फोस दलाली प्रकरण में उन्होंने राजीव गांधी के साथ-साथ अमिताभ बच्चन व उनके परिवार पर भी सीधा निशाना साधा। इसी घटनाक्रम में अमिताभ बच्चन को मात्र ढाई साल के अपने सांसदकाल के बाद लोकसभा की सदस्यता त्यागनी पड़ी थी।
इस मामले में भी राजनैतिक विश्वलेषक दो प्रकार की बातें कहते हैं। एक तो यह कि अपने ऊपर भ्रष्टाचार जैसे घटिया आरोप लगते देखकर अमिताभ ने स्वयं यह महसूस किया कि राजनीति में आने का उनका भावनात्मक ंफैसला वास्तव में ंगलत था और यही सोचकर उन्होंने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया। जबकि कुछ सूत्र बताते हैं कि राजीव गांधी ने बदनामी से बचने हेतु अमिताभ बच्चन पर इस्तींफा देने का दबाव बनाया जिसके कारण अमिताभ को त्यागपत्र देना पड़ा। बहरहाल वजह जो भी रही हो, अमिताभ ने 1987 में इलाहाबाद संसदीय सीट से त्यागपत्र दे दिया। वहां उपचुनाव हुए। अमिताभ बच्चन पुन: उस सीट से चुनाव लड़ेंगे या नहीं, कांग्रेस द्वारा इसकी घोषणा करने से पहले ही वी पी सिंह ने जनमोर्चा के उम्मीदवार की हैसियत से उसी सीट से अपना पर्चा भरकर कांग्रेस को ताल ठोक दी। मुझे याद है उस समय राजा साहब ने एक रट लगा रखी थी कि वे अमिताभ बच्चन को पराजित करने के लिए तथा उन्हें भ्रष्टाचार में संलिप्त सिद्ध करने के लिए जनमत हासिल करेंगे। संक्षेप यह है कि अमिताभ पुन: उस सीट से स्वयं उम्मीदवार नहीं बने अथवा पार्टी द्वारा नहीं बनाए गए या पार्टी ने बनाना चाहा और उन्होंने इन्कार कर दिया। बात जो भी रही हो परन्तु बच्चन स्वयं चुनाव नहीं लड़े। कांग्रेस ने वी पी सिंह के मुंकाबले में स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री के सबसे छोटे पुत्र सुनील शास्त्री को मैदान में उतारा जिन्हें राजा साहब ने आसानी से पटखनी दे दी। इसके पश्चात तो मानो राजा साहब भ्रष्टाचार का विरोध करने वाले देश के एक महानायक बन गए।
उधर वी पी सिंह के बढ़ते हौसले को देखकर विपक्ष भी इनके साथ चलने को तैयार हो गया। लोकदल, तेलगु देशम, असम गण परिषद व कांग्रेस (एस) जैसी पार्टियों को लेकर राष्ट्रीय मोर्चे का गठन किया गया। 1989 के लोकसभा चुनावों में हालांकि राष्ट्रीय मोर्चा बहुमत में तो नहीं आया फिर भी कांग्रेस से सत्ता छीनने के लक्ष्य को मद्देनंजर रखकर भारतीय जनता पार्टी व वामपंथी दलों ने राष्ट्रीय मोर्चे के नेतृत्व में चलने वाली सरकार को बाहर से ही समर्थन देने का ंफैसला किया। इधर राष्ट्रीय मोर्चे में भी वी पी सिंह के अतिरिक्त दो और ंकद्दावर नेता नंजर आ रहे थे। एक चौधरी देवी लाल तथा दूसरे चन्द्रशेखर। देवी लाल का रुंख तो प्रधानमंत्री पद पर राजा साहब की दावेदारी को लेकर कुछ नर्म था। परन्तु चन्द्रशेखर किसी भी ंकीमत पर राजा साहब को राष्ट्रीय मोर्चा के संसदीय दल के नेता के रूप में निर्वाचित होते नहीं देखना चाहते थे। यहां राजा साहब ने राजनीति की वह बिसात चली जिसने चन्द्रशेखर को चित्त कर दिया। राजा साहब ने पहले चौधरी देवी लाल को संसदीय दल के नेता के रूप में प्रस्तावित कर चन्द्रशेखर से उनके प्रति समर्थन ले लिया तथा जब देवीलाल संसदीय दल के नेता चुन लिए गए, उस समय चौधरी साहब ने स्वयं वी पी सिंह को संसदीय दल के नेता के रूप में प्रस्तावित कर दिया। इस घटना से क्षुब्ध होकर चन्द्रशेखर संसदीय दल की बैठक का बहिष्कार करते हुए ंगुस्से में बैठक से उठकर बाहर चले गए। इस प्रकार शुरु हुई देश में गठबंधन सरकार चलाने की वह राजनीति जिसके परिणामस्वरूप आज तक गठबंधन सरकारों का दौर जारी है। क्षेत्रीय दलों द्वारा ब्लैकमेलिंग किए जाने का सिलसिला शुरु हो चुका है। केंद्र में अस्थिर सरकारें आ जा रही हैं तथा वी पी सिंह के ंजहरीले आरोपों से घायल हुई कांग्रेस पार्टी आज तक पूरी तरह से संभल पाने में स्वयं को असमर्थ महसूस कर रही है। इसके अतिरिक्त मंडल कमीशन लागू करना, लाल कृष्ण अडवाणी की रथ यात्रा को बाधित करने तथा अडवाणी को गिरंफ्तार कर जेल भेजने के लिए बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव को हरी झंडी देना, यहां तक कि इसी प्रकरण में भाजपा द्वारा वी पी सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लेना आदि सब कुछ तथा इसके अतिरिक्त भी अनेकों न भुला पाने वाले राजनैतिक घटनाक्रम धर्म निरपेक्षता के इस महान पुरोधा के खाते में जोड़े जा सकते हैं। राजनीति के इस महानायक को शत्-शत् प्रणाम तथा शत्-शत् नमन।
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