गुरुवार, 30 जुलाई 2009

सेमरिहा के किसानों की जीवन रेखा है जैविक खेती- आलेख, जे. पी. धौलपुरिया

सेमरिहा के किसानों की जीवन रेखा है जैविक खेती

----------------------------- आलेख, जे. पी. धौलपुरिया,

उप संचालक, जिला जन सम्पर्क कार्यालय, शहडोल म. प्र.

 

कृषि उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ किसानों के कल्याण का सपना संजोकर दो साल पहले शुरू की गई जैविक खेती की योजना शहडोल जिले के ग्राम सेमरिहा के किसानों की जीवन रेखा बन गई है। रासायनिक खेती छोड़कर जैविक खेती अपनाने से सुर्खियों में आया सेमरिहा गांव पूरी तरह जैविक खेती का गांव बन गया है ।

       रासायनिक खाद से भूमि की उर्वरा शक्ति में हुई कमी और इस शक्ति को पुन: प्रदान करने के लिए भूमि में जैविक खेती ने गांव के सभी किसानों का ध्यान खींचा। रासायनिक खाद पर निर्भर खेती को सरकारी मदद से बने वर्मी टांकों से जैविक खाद का मिलना सुनिश्चित होने से सेमरिहा क्षेत्र किसानी हलकों में तेजी से उभरता चला गया । कृषि उत्पादकता वाले जिले के प्रमुख क्षेत्रों में जैविक खेती की बदौलत सेमरिहा क्षेत्र ने अपनी विशेष पहचान बनाई है। जैविक खेती से जहां कृषि उत्पादन में आशातीत वृध्दि हुई और फसल चक्र में परिवर्तन आया, वहीं किसानों के घरों में आर्थिक सम्पन्नता आने से उनके जीवन में खुशहाली आई है । शहडोल से 90 कि. मी. दूर छत्तीसगढ़ सीमा के पास आदिवासी वाहुल्य सेमरिहा गांव में 75 लघु कृषकों के घर हैं । जिनके पास करीब 100 एकड़ कृषि भूमि है । यहां के किसान खेती के लिए वर्षा पर निर्भर होने के साथ-साथ रासायनिक उर्वरकों पर निर्भर  थे । किसानों की माली हालत ठीक नहीं थी । वर्षा हो जाने से उनके खेतों में थोड़ा-बहुत जो अन्न हो जाता था, उससे और दिहाड़ी से वह अपनी आजीविका चला रहे थे । लिहाजा कृषि की बढ़ी लागत उनके लिए मुनाफे का सौदा नहीं थी ।

       सेमरिहा की खेती वर्षा और रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक की बढ़ती कीमतों के कारण संकट की मार झेल रही थी, तब गांव के किसानों ने समस्या की जड़ को ही खत्म करने का फैसला लिया । उनका रासायनिक खेती से मोह भंग हो चुका था और वे इसकी खेती से दूर हो जाना चाहते थे। वहां के किसानें ने रासायनिक उर्वरक के वैकल्पिक स्त्रोत जैविक खाद के बारे में सुन रखा था और उन्होंने इसे आजमाने का फैसला लिया । कृषि विशेषज्ञों ने भी उन्हें समझाया कि कहने को तो रासायनिक खाद का इस्तेमाल उत्पादकता को बढ़ाता है, जबकि इसके उलट वह लम्बे दौर में मिट्टी के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, जिससे उर्वरता के साथ-साथ उत्पादन स्तर में गिरावट आती है। उनका जैविक खेती का दौर 2007 में उस वक्त शुरू हुआ, जब उन्होंने जैव उर्वरक का उत्पादन लेना शुरू किया, जिसके लिए राज्य सरकार के कृषि विभाग ने सात किसानों के यहां वर्मी टांके बनवाए और उन्हें केंचुआ दिलाया । अहममोड़ उस समय आया, जब आजीविका परियोजना ने 17 किसानों के यहां और कृषि विभाग ने 18 किसानों के यहां और वर्मीटांके बनवाए तथा केंचुआ उपलब्ध कराए । इस साल आजीविका परियोजना ने 25 किसानों के यहां वायोगैस संयत्र भी लगवाए हैं ।

       किसानों ने केंचुआ खाद का उत्पादन कर उसका अपने खेतों में इस्तेमाल करना जो शुरू किया कि असिंचित क्षेत्र होने के बावजूद उनका उत्पादन तीन गुना तक बढ़ गया, जिसके कारण जैविक खाद उनकी जरूरत बन गया । जो किसान इसका उत्पादन नहीं कर रहे थे, वे दूसरों से खरीदकर इसका अपने खेतों में इस्तेमाल करने लगे । कृषि विभाग के नुमाइन्दों ने सिंथेटिक उर्वरक के स्थान पर जैव उर्वरकों की ओर किसानों का रूख क्या मोड़ा कि पूरा सेमरिहा गांव ही जैविक खेती का गांव बन गया और वहां के काश्तकारों की तकदीर ही बदल गई । वे तीन फसलें  लेने लगे । जिसमें से एक सब्जी की फसल भी शामिल है । जैविक खाद से उपजी उनकी सब्जी को बाजार में लोग हाथोंहाथ खरीद लेते हैं । 

 

गांव में आये इस बदलाव पर शहडोल के उप संचालक कृषि श्री के. एस. टेकाम कहते हैं,'' कृषि विभाग ने सेमरिहा गांव का शतप्रतिशत जैविक खेती के लिए चयन किया था । इसके लिए काश्तकारों के घरों में वर्मी टांकें बनवाए गए । '' गांव के काश्तकार श्री चन्द्रभान सिंह बताते हैं, '' पहले इतनी गरीबी थी कि घर में एक टाइम चूल्हा जलता था । गुजारे के लिए मजदूरी पर जाना पड़ता था । आज दोनों वक्त भोजन कर रहे हैं और जीवन अच्छी तरह बीत रहा है । '' वे जैविक खेती के फायदे कुछ यों बताते हैं,'' रासायनिक खाद से खरपतवार होते थे और जमीन कड़ी रहती थी और उपज भी कम आती थी तथा जमीन पानी भी अधिक सोखती थी । जैविक खेती से उत्पादन दो से तीन गुना बढ़ गया है । पानी कम लगता है, जमीन मुलायम हो गयी है तथा खरपतवार  नहीं होता तथा जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ रही है । रासायनिक खाद व कीटनाशकों पर खर्च होने वाली राशि भी बच रही है।''

       सेमरिहा के काश्तकार अपने खेतों में सिर्फ जैव उर्वरक ही इस्तेमाल नहीं करते, बल्कि वे कीटनाशक के रूप में नीम की नीबोली और उसकी पत्ती, करंज की पत्ती, वेशरम की पत्ती या अकमन की पत्ती को सड़ाकर बनाए गए अर्क का भी इस्तेमाल करते हैं । इस तरह वहां के काश्तकार जैविक खेती युग में जी रहे हैं । सेमरिहा गांव के चारों ओर बनाए गए वर्मी टांके जैविक खेती की ओर बढ़े कदमों की याद दिलाते हैं । काश्तकार नई तकनीक अपनाकर उपलब्ध भूमि से प्रति इकाई कृषि उत्पादन में वृध्दि कर सकें, इसके लिए राज्य सरकार का कृषि विभाग भी सक्रिय है ।

 

 

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