रविवार, 2 अगस्त 2009

विशिष्ट है श्योपुर का काष्ठ - शिल्प - सुभाष चन्द्र अरोड़ा

विशिष्ट है श्योपुर का काष्ठ - शिल्प - सुभाष चन्द्र अरोड़ा

आलेख- सुभाष चन्द्र अरोड़ा, क्षेत्रीय संयुक्‍त संचालक, जनसम्‍पर्क विभाग, म.प्र; , क्षेत्रीय जनसम्‍पर्क कार्यालय ग्‍वालियर म.प्र.

आलेख से सम्‍बन्धित चित्र चम्‍बल की आवाज पर फोटो एल्‍बम में एवं ग्‍वालियर टाइम्‍स वेबसाइट पर प्रसारित किये जा रहे हैं

 चम्बल संभाग का शहर श्योपुर कलां काष्ठ - शिल्प के लिये विशेष रूप से जाना जाता है। श्योपुर कलां के काष्ठ - शिल्पी कच्ची जंगल वुड को खराद पर चढ़ाकर बना देते हैं ड्राईंग रूम का सजावटी सामान, देते हैं लकड़ी को तरह तरह के आकार । लाख अर्थात चपड़े के रंगों से उसे बनाते हैं आकर्षक जो अपनी खास कलर स्कीम के कारण दिखता है जुदा और बिकता भी है मंहगा ।

       श्योपुर के काष्ठ शिल्पी परम्परागत भगवान के झूले से लेकर पैडस्टल लैम्प, कार्नर टेबल, शीशे का स्टैण्ड, बैंगल स्टैण्ड, फ्लावर पॉट, लालटेन, तोप आदि डेकोरेशन पीस बनाते हैं । उनके द्वारा बच्चों के लिये बनाये जाने वाले खिलौने भी सुन्दर होते हैं ।

        श्योपुर प्रवास दौरान मेरी काष्ठ शिल्पी जनाब निसार अहमद और उसके भाई जनाब सरकार  अहमद से बातचीत हुई । वो दोनों भाई न केवल अच्छे काष्ठ शिल्पी है अपितु उनकी काष्ठ शिल्प विक्रय हेतु दुकान भी है और वे काष्ठ शिल्प प्रदर्शन और विक्रय हेतु राजधानी दिल्ली सहित देश के बड़े बड़े नगरों में आयोजित शिल्प प्रदर्शनियों में भी शिरकत कर चुके हैं।

श्योपुर के इन दोनों भाईयों को काष्ठ शिल्प विरासत में मिला है । उनके परिवार में कई पीढ़ियों से परम्परागत भगवान के झूले बनते हैं । लकड़ी के अन्य आयटम भी वे बहुत खूबसूरती से बनाते हैं । जिस इलाके में दोनों भाई बसते हैं वह काष्ठ शिल्पियों का ही इलाका और खरादी बाजार कहलाता है । वहाँ बहुत सी काष्ठ शिल्प विक्रेताओं की दुकाने हैं । बाजार से सटी गलियों में काष्ठ शिल्पी बसते हैं जो अपने घरों पर लकड़ी का सुन्दर सुन्दर सामान बनाते हैं और यहाँ दुकानदारों को पहुँचा जाते हैं । कारीगरों को तो बामुश्किल मेहनताना ही मिलता है अलबत्ता दुकानदार जरूर ठीक ठाक पैसा कमा लेते हैं । ऐसे शिल्पी जिनकी अपनी दुकानें हैं महज वे ही बेहतर गुजर बसर करते हैं।

       बातचीत में मुझे दोनों भाईयों निसार और सरकार अहमद ने बताया कि सलई, गमीर, गुरजेन, कदम और जो भी हेड लोड़ लकड़ी बेचने वाले खरादी बाजार के चौराहे पर लाते हैं उन्ही में से शिल्पी अपनी जरूरत की लकड़ियां देख कर खरीद लेते हैं । जंगल विभाग के डिपो से तो उन्हें अब लकड़ियां नहीं मिलती । इस प्रकार उपलब्ध जंगल वुड से जो खिलौने या सजावट का सामान बनता है वह सुन्दर तो होता है पर सहारनपुर के पक्की लकड़ी वाले काष्ठ शिल्प जैसा टिकाऊ नहीं होता । सहारनपुर के आयटम तो अब हर तरफ बिकते हैं । सहारनपुर वाले कई तरह की मशीनों का उपयोग करते हैं । उन्हें विदेशी बाजार भी मिल चुका है । श्योपुर के काष्ठ शिल्पियों को भी अगर वन विभाग से अच्छी लकड़ी मिलने लगे तो श्योपुर का शिल्प भी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार पा सकता है ।

       राजस्थान से लगे मध्य प्रदेश के जिले श्योपुर के काष्ठ शिल्प की खासियत बयान करते हुए उन्होंने बताया कि हम खराद और हाथ का कमाल दिखाते हैं । हमारे परिवार की स्त्रियां और बच्चे ब्रश से इन कला- कृतियों को रंगते हैं और हम चपड़े वाले पन्द्रह रंगों से जो अधिक चमकीले  और सतह को चिकना बनाने वाले होते हैं, से कलाकृतियों को सजा देते हैं। राजस्थान के उदयपुर में भी गौंड़ा लैम्प (पैडस्टल लैम्प) बनाये जाते हैं जो श्योपुर से मिलते जुलते दिखते हैं ।  समानता के बावजूद श्योपुर में निर्मित लकड़ी के लैम्प और अन्य सामान बड़ी मेहनत, अधिक सफाई और खास किस्म की कलर स्कीम के कारण विशिष्टता लिये रहता है । इसी लिए उनके दाम भी उदयपुर के सामान से कहीं अधिक मिलते हैं ।

       अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए दोनों भाई बताते हैं कि कभी श्योपुर के पठान, गौरी पठान, शेख, मेवाती आदि दो सौ से भी अधिक परिवार काष्ठ शिल्प से अपनी रोजी रोटी चलाते थे । आज इस व्यवसाय में मात्र एक चौथाई परिवार रह गये हैं । अव्वल दर्जे के कारीगर भी अब गिनती के हैं । अच्छे कारीगरों में सर्वश्री मसूद इकबाल, खालिक, सलमान और निसार जैसों का नाम लिया जाता है। उन्होंने आगे कहा कि अमूमन बाहर से आने वाले पर्यटक या फिर शादी ब्याह में ही स्थानीय लोग हमारा सामान खरीदते हैं । बाहर प्रदर्शनियों में हिस्सेदारी भी कुछ न कुछ दे जाती है । बच्चों के खिलौने अब बहुत कम बिकते हैं । बाजार में अब प्लास्टिक और चीन देश के बने सस्ते सामान की भरमार होती जा रही है । साथ ही अब अच्छी लकड़ी भी तो दूर हो चुकी है ।

 बावजूद बढ़ती दुश्वारियों के श्योपुर के काष्ठ शिल्पी अपनी श्रम साधना में निरन्तर जुटे हैं । परम्परागत काष्ठ शिल्प के अलावा कुछ नये आयटम  भी वे अब बनाने लगे हैं । उनसे विदा होते हुए मुझे बचपन में सुना वह गीत याद आ रहा था '' जीते लकड़ी, मरते लकड़ी, अजब तमाशा लकड़ी का'' गीत में बच्चे के पालने से लेकर व्यक्ति की चिता तक लकड़ी के महत्व को बहुत खूबसूरती से पिरोया गया था। अब लगता वह लकड़ी हमसे छूटती जा रही है और उसकी जगह गैस,रसायन, प्लास्टिक और धातु निर्मित वस्तुएं लेती जा रही हैं। ऐसे में अगर इन काष्ठ शिल्पियों की सुध न ली गई तो यह परम्परागत शिल्प ड्रांईग रूम से उठकर कहीं संग्रहालय की वस्तु  बन कर न रह जाये ।

सुभाष चन्द्र अरोड़ा

 

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