मंगलवार, 4 अगस्त 2009

पाक द्वारा बलूचिस्तान का मुद्दा उठाने के निहितार्थ

पाक द्वारा बलूचिस्तान का मुद्दा उठाने के निहितार्थ

तनवीर जांफरी  (सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी, शासी परिषद)

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      मिस्र की प्रमुख पर्यटन नगरी शर्म-अल-शेंख में गत् दिनों आयोजित हुए गुट निरपेक्ष देशों के सम्मलेन में भारत व पाकिस्तान ने एक सुंयक्त घोषणापत्र जारी किया। पाकिस्तान द्वारा इस घोषणापत्र में बड़ी ही चतुराई के साथ बलूचिस्तान के विवादित मुद्दे का भी कथित रूप से उल्लेख किया गया है। ज्ञातव्य है कि पाकिस्तान कांफी लंबे समय से यह आरोप लगाता रहा है कि बलूचिस्तान में विद्रोह भड़काने तथा विद्रोह कराने में भारत का हाथ है। जबकि भारत द्वारा हमेशा ही पाकिस्तान के इस आरोप का खंडन किया गया है। पाकिस्तान भले ही दुष्प्रचार के तौर पर अथवा दुनिया की नंजर में भारत को संदिग्ध बनाने की अपनी कोशिशों के तहत बलूचिस्तान में चल रही अलगाववादी विद्रोही गतिविधियों के लिए भारत पर कितना ही आरोप क्यों न लगाए परन्तु हंकींकत यह है कि अपने इन आरोपों के समर्थन में पाकिस्तान ने अभी तक भारत को कोई भी सबूत नहीं सौंपे हैं। पाकिस्तान व अंफंगानिसतान मामलों के लएि नियुक्त विशेष अमेरिकी दूत ने भी इस विवादित मुद्दे पर अपनी राय ंजाहिर करते हुए कहा है कि पाक अधिकारियों ने बलूचिस्तान मुद्दे का ंजिक्र तो उनसे कई बार किया परन्तु वहां भारत की दंखलअंदांजी के कोई भी सबूत उनके द्वारा मुझे नहीं बताए या दिखाए गए।

              भारत में मनमोहन सिंह सरकार के समक्ष विपक्ष द्वारा बलूचिस्तान के अतिरिक्त दूसरी समस्या इस बात को लेकर खड़ी की जा रही है कि मुंबई में 2611 को हुए आतंकवादी हमलों के बाद पाकिस्तान द्वारा हमलों में संलिप्त आतंकियों के विरुद्ध अब तक कोई कार्रवाई न किए जाने के बावजूद भारत द्विपक्षीय वार्ता को क्योंकर आगे बढ़ा रहा है। प्रधानमंत्री की मिस्र से वापसी के बाद भारत की संसद तीन दिनों तक इसी विषय पर चलने वाली ंजोरदार बहस में उलझी रही। आंखिरकार इस बहस का परिणाम यह निकला कि भारतीय जनता पार्टी के सांसद सरकार के पक्ष से असन्तुष्ट होकर विपक्ष के नेता लाल कृष्ण अडवाणी के नेतृत्व में सदन से वॉकआऊट कर गए। जबकि भारत सरकार की ओर से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी तथा विदेश मंत्री एस एम कृष्णा द्वारा यह सांफतौर से कहा गया कि 2611 के आरोपियों के विरुद्ध कार्रवाई किए बंगैर भारत पाकिस्तान से कोई बातचीत आगे नहीं बढ़ाएगा। सरकार द्वारा यह भी सांफ किया गया कि बलूचिस्तान में भड़कने वाले विद्रोह में भारत का कोई हाथ नहीं है। भारत 'वसुधैव कुटुम्बकम' की नीति पर चलते हुए किसी भी देश के अंदरूनी मामलों में दंखलअंदांजी न किए जाने के अपने मूल सिद्धान्तों पर हमेशा से ंकायम है। परन्तु प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक बड़े एशियाई देश के ंजिम्मेदार प्रधानमंत्री तथा विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के मुखिया की भूमिका निभाते हुए कहा कि हम पाकिस्तान के साथ 'परखने और विश्वास करने' के सिद्धान्त पर आगे बढ़ रहे हैं।

              इस विषय पर कुछ बातें ऐसी सामने आ रही हैं जिनमें परस्पर विरोधाभास नंजर आता है। उदाहरण के तौर पर अभी कुछ ही दिनों पूर्व पाक राष्ट्रपति आसिंफ अली ंजरदारी द्वारा यह स्वीकार किया जा चुका है कि पाकिस्तान को भारत की ओर से कोई ंखतरा नहीं है। पाक राष्ट्रपति की यह बात केवल औपचारिकता मात्र नहीं कही गई बल्कि उनके इस वचन में सच्चाई भी है। यदि पाकिस्तान को भारत की ओर से ऐसा विश्वास न होता तो पाक-अंफंगान सीमान्त क्षेत्रों में इन दिनों चल रहे तालिबान विरोधी ऑप्रेशन में भारत-पाक सीमा पर तैनात फौजों को कभी स्थानांतरित न करता। भारत के प्रति पाक की विश्वसनीयता के ही परिणामस्वरूप पाक सेना का यहां से स्थानान्तरण संभव हो सका। एक ओर तो पाकिस्तान की ओर से भारत के प्रति इस हद तक विश्वास जताने की कोशिश की जाती है तो दूसरी ओर पाक प्रधानमंत्री युसुंफ रंजा गिलानी बलूचिस्तान मुद्दे पर भारत पर कीचड़ उछालकर दुनिया में भारत की शांतिप्रिय देश की बनी छवि को दांगदार करने का प्रयास कर रहे हैं।

              दरअसल पाकिस्तान बलूचिस्तान के मुद्दे पर भारत पर उंगली उठाने का जो कार्य कर रहा है, इसके पीछे उसका मंकसद दुनिया को केवल यह बताना है कि भारत में आतंकवादी घटनाओं के लिए   

पाकिस्तान को बार-बार ंजिम्मेदार ठहराने वाला भारत भी पाकिस्तान में पनपने वाले भीतरी विद्रोह के लिए वैसा ही ंजिम्मेदार है जैसा कि भारत पाकिस्तान को बताता आ रहा है। परन्तु पाकिस्तान की इस कूटनीति का कोई असर पड़ने वाला नहीं है। हां इतना ंजरूर है कि पाकिस्तान सरकार के इस रास्ते पर चलने के परिणामस्वरूप वहां मौजूद उन आतंकवादी संगठनों के हौसले और अधिक बढ़ेंगे जो पाकिस्तान में बैठकर भारत को अस्थिर करने की सांजिश रचते रहते हैं। बलूचिस्तान में विद्रोह या उनकी आंजादी की मांग कोई एक-दो दशक पुरानी मांग नहीं है। बल्कि 1950 से ही बलूचिस्तान में अलगाव की आग धधक रही है। परन्तु पाकिस्तान के हुक्मरानों ने अपनी उस भीतरी आग को बुझाने के बजाए कश्मीर सहित पूरे भारत में आतंकवाद फैलाने तथा उस आतंकवाद को रोपित करने व उसे सींचने में ंज्यादा ध्यान दिया। ऐसी ही ंगलती पाकिस्तान द्वारा पुन: भारत पर उंगली उठाकर दोहराई जा रही है। अर्थात् बिल्ली के सामने कबूतर के आंख बंद कर लेने जैसी कहावत को चरितार्थ करने का प्रयास किया जा रहा है।

              उधर भारत में मुख्य विपक्षी दल भरतीय जनता पार्टी जो अभी तांजा लोकसभा चुनावों में भारतीय मतदाताओं द्वारा बुरी तरह नकारी जा चुकी है, शर्म-अल-शेंख में जारी भारत-पाक घोषणपत्र को लेकर कुछ ंज्यादा ही ंफिक्रमंद दिखाई दे रही है। भाजपा अपनी आदत के मुताबिक प्रत्येक ऐसे विवादित मुद्दों को देश की संप्रभुता से सीधे तौर पर जोड़ने की कोशिश में लग जाती है। चाहे शर्म-अल-शेंख में जारी घोषणपत्र का मामला हो अथवा अतीत के अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से धन लेने अथवा विश्व व्यापार संगठन से बात करने जैसे मामले हों या फिर अमेरिका से हुए असैनिक परमाणु समझौते की बात हो, भाजपा ऐसे हर मुद्दे पर 'देश की सम्प्रभुता पर ंखतरा' देखने लग जाती है। भाजपा की यह नंजर सच्चाई से परिपूर्ण होती है या ऐसी शब्दावली का प्रयोग केवल अपने राजनैतिक नंफे-नुंकसान के लिए पार्टी द्वारा किया जाता है, इसका जवाब जनता द्वारा हाल के चुनावों में दिया भी जा चुका है। परन्तु जनता के बीच पुन: जाने के लिए मुद्दों की तलाश में लगी भाजपा को ऐसा लगता है कि बलूचिस्तान व मुंबई हमलों के मामले पर किया जाने वाला शोर शराबा शायद उन्हें कुछ न कुछ राजनैतिक ऍक्सीजन दे सकेगा।

              पाकिस्तान में भी जहां गिलानी समर्थक सत्तापक्ष के लोग बलूचिस्तान मामले को उठाए जाने को पाकिस्तान की कूटनीतिक सफलता के रूप में प्रचारित कर रहे हैं, वहीं पाक की रूढ़ीवादी विपक्षी पार्टियां भी गिलानी को इस बात को लेकर कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रही हैं कि उन्होंने शर्म-अल-शेंख में कश्मीर का मुद्दा क्यों नहीं उठाया? लिहांजा लोकतांत्रिक व्यवस्था का पालन करने वाले देशों में इस प्रकार के शोर-शराबे तथा वावैला का शायद इतना महत्व नहीं होता जितना महत्वपूर्ण कि वह मामला देखने या सुनने में प्रतीत होता है। यूपीए सरकार को पाकिस्तान के विरुद्ध आर-पार की कार्रवाई किए जाने की सलाह देने वाली भारतीय जनता पार्टी ने भी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार में शामिल होकर सरकार का नेतृत्व किया है। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में भी कई अवसर ऐसे आए जब यह लगा कि पाकिस्तान से निपटने का एकमात्र हल अब केवल युद्ध ही रह गया है। परन्तु आज के आर-पार की बात करने वाले यही नेता उस समय युद्ध टालने की पूरी जुगत भिड़ाने में लगे हुए थे। निश्चित रूप से उस समय देश ने राहत की सांस भी ली थी जबकि युद्ध टालने के वाजपेयी के कूटनीतिक प्रयास सफल हुए थे। ऐसे में इस समय भी वक्त क़ा यही तंकांजा है कि दोनों ही देशों के सत्तापक्ष तथा विपक्ष सभी के बीच पूरा आपसी सामंजस्य स्थापित हो। कश्मीर सहित किसी भी देश के किसी भी भीतरी विवाद में किसी भी पड़ोसी देश के दंखल देने की कोई ंजरूरत महसूस न की जाए। साथ-साथ पाकिस्तान एक बार फिर यह याद रखे कि दूसरों पर उंगली उठाने से उसपर लग चुके धब्बे मिटने वाले ंकतई नहीं हैं। अत: आतंकवाद को अपने देश से समाप्त करने के लिए वह चाहे अपने स्तर से चाहे अमेरिकी सहायता से अथवा यदि ंजरूरत समझे तो एक पड़ोसी बड़े देश या बड़े भाई के नाते भारत से भी पूर्ण सहयोग की अपेक्षा कर सकता है। यदि पाकिस्तान दुनिया को वास्तव में यह दिखाना चाहता है कि आतंकवाद के विरुद्ध कार्रवाई हेतु वास्तव में वह गंभीर है तो उसे चाहिए कि द्विपक्षीय वार्ताओं में शामिल अन्य बिंदुओं के अतिरिक्त सर्वप्रथम वह दोनों देशों के मध्य प्रत्यापर्ण संधि पर यथाशीघ्र हस्ताक्षर करे। इससे दोनों ही देशों में आतंकवाद को रोकने में कांफी सहायता मिलेगी तथा पाकिस्तान द्वारा उठाया गया यही ंकदम दुनिया को यह दिखा सकेगा कि वास्तव में पाकिस्तान आतंकवाद जैसी मानवता विरोधी समस्या को लेकर कितना गंभीर व चिंतित है।

 

                                                                                  तनवीर जांफरी

 

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