रविवार, 10 फ़रवरी 2008

फिल्म की नई परिभाषा गढता तारे जमीं पर

फिल्म की नई परिभाषा गढता तारे जमीं पर

डॉ. विजय अग्रवाल*

 

       ओम शांति ओम लगभग असफल सी ही रही। इसी समय आई साँवरिया तो पक्के तौर पर ही पिट गई। लेकिन दूसरी ओर तारे जमीं पर फिल्म सुपर हिट रही। ऐसा क्यों हुआ, कैसे हुआ, समीक्षक इस प्रश्न का उत्तर अपनी-अपनी तरह से देंगे। यहाँ सबसे बड़ी और अच्छी बात यह दिखाई दे रही है कि तारे जमीं पर की यह सफलता एक प्रकार से हिंदी सिनेमा की बम्बईया परिभाषा को बदलने वाली साबित हो रही है, जिसका जी-खोलकर स्वागत किया जाना चाहिए।

       वैसे तो हिंदी में लीक से हटकर कई-कई फिल्में बनी हैं, लेकिन वे सुपरहिट हुई हों, और वह भी न्नतारे जमीं पर न्न की तरह, याद नहीं आता। यदि कोई फिल्म ऐसी होगी भी, तो उसमें नायक-नायिका के प्रेम प्रसंग, नाच-गाने, भावनाओं की छोंक तथा हिंसा के धमाके आदि जरूर रहे होंगे। इस फिल्म ने इन सबसे परे जाकर अपने लिए एक नया फार्मूला गढा है, और यह नया फार्मूला कई कोणों से गढा ग़या है।

       पहला तो यह कि इसने इस तथ्य को नकारा कि बिना जोड़े के, और उस जोड़े के प्रेम-प्रसंगों के कहानी बन ही नहीं सकती।

       दूसरे यह कि फिल्म की कहानी रोचक और मन को भाने वाली होनी चाहिए। डिस्लैक्सिया के रोग से पीड़ित बच्चे की कहानी मनभावन तो नहीं हो सकती। हालांकि इसके दो साल पहले ही संजय लीला भंसाली की ब्लैक आई थी, जो एक मानसिक रूप से विकलांग लड़की की कथा थी। इस फिल्म को काफी सराहना भी मिली। लेकिन हिट फिल्म का खिताब इसे नहीं मिल सका। यह बात दिगर है कि यह पऊलॉप भी नहीं हुई।

       तीसरे यह कि न्नतारे जमीं पर न्न ने फिल्मों में गीतों के साहित्यिक एवं कलात्मक इस्तेमाल की नई संभावनायें के द्वार खोले हैं। यहाँ गीत संवादों और कथाओं से भी कही अधिक भावप्रवण बनकर आये हैं। रोजमर्रा की जिंदगी के प्रसंग और भाषा को लेकर जिन गीतों की रचना की गई है, वे अद्भूत हैं। निश्चित रूप से इसके गीत अपनी

साधारणता में असाधारणता लिये हुए हैं।

       चौथे यह कि इस फिल्म ने यह सिध्द किया है कि फिल्म दिल को बहलाने के साथ-साथ ऑंखों को खोलने वाली भी हो सकती है, और इन दोनों में कोई परस्पर बैर नहीं है। इस फिल्म ने देश की शिक्षा पध्दति तथा माता-पिता का अपने बच्चों के प्रति व्यवहार को लेकर जिस राष्ट्रीय बहस को जन्म दिया है, वह अभिनिन्दनीय है।

       पिछले 5-6 साल में भारतीय सिनेमा, विशेषकर हिंदी सिनेमा ने, और वह भी उसके कमर्शियल सिनेमा ने अपने लिए जिस नई जमीन की तलाश करनी शुरू कर दी थी, वह पहली बार फिल्म लगान के रूप में दर्शकों के सामने आई। इसके बाद उसी पंक्ति की रंग दे बसंती, चक दे इंडिया तथा अब न्नतारे जमीं पर, फिल्म आई है। इन तीनों फिल्मों को यहाँ एक पंक्ति में इसलिए रखा गया है, क्योंकि इन तीनों ने कथ्य, भाषा और अभिव्यक्ति, इन तीनों ही स्तरों पर अपने-अपने लिए एक नये मुहावरों की तलाश की है और इनकी यह तलाश एक सफल तलाश रही, क्योंकि देश की लगभग-लगभग संपूर्ण जनता ने इन्हें देखा, और जमकर सराहा भी।

       किसी भी कला-रूप की सबसे बड़ी सामाजिक भूमिका यही होती है कि वह तात्कालीन विचारों और व्यवस्था को एक सकारात्मक दिशा देने के लिए अपना एक रचनात्मक हस्तक्षेप करे। जनमाध्यम एवं सबसे प्रभावशाली माध्यम होने के कारण सिनेमा इस रूप में सबसे अधिक कारगर हो सकता है। इस लिहाज से तारे जमीं पर फिल्म का खुले हृदय से स्वगत किया जाना चाहिए।

 

 

डॉ. विजय अग्रवाल- पत्र सूचना कार्यालय, भोपाल के अपर महानिदेशक हैं।

 

कोई टिप्पणी नहीं: