शनिवार, 13 अक्टूबर 2007

राष्ट्रीय मीडिया की नजरो से ओझल बदलाव की बयार.................

राष्ट्रीय मीडिया की नजरो से ओझल बदलाव की बयार.................
दीपक शर्मा, रामनगर, मुरैना (म.प्र)

13 अक्टूबर- अपने अधिकारों के लिये उनका हर कदम आत्म विश्वास से लवरेज आजादी के बाद के साठ सालों का लोखा जोखा लेने दिल्ली सल्तनत की ओर बड़ रहे है। उनके बढ़ते कदमों को रास्ते भर में मिले सहयोग एवं समर्थन ने दो गुनी ताकत दे दी है। उनका अंदाज बताता है कि वे शायद अब आजीविका के अधिकारों से कम पर समझौता नही करेगे। हाले बंया उन मुसाफिरों का है जो एकता परिषद का झंण्डा थामे संगठन के संस्थापक अध्यक्ष पी.व्ही. राजगोपाल के नेतृत्व में गांधी जयंती के दिन ग्वालियर से दिल्ली तक की पदयात्रा पर निकले है। यात्रा नायक राजगोपाल को देश एवं दुनिया सहित रास्ते भर के राजनैतिक सामाजिक सरोकारों के लिये काम कर रहे संगठनों तथा व्यक्तियों द्वारा न केवल वंचितों की वेदना को समझने एवं उनकी आवाज को मुखरित करने के लिये सराहा जा रहा है, अपितु गरीब एवं बंचित वर्ग के अधिकारों के लिये सरकार से मोर्चा लेने के लिये गांधीवाद के अस्त्र को आजमाने एवं गांधीवाद एवं उनके सत्याग्रह को पुर्न:जीवित कर उसके क्रियात्मकता के दर्शन कराने के लिये भी साधुवाद दिया जा रहा है। कदम - कदम पर मिल रहे जन सहयोग एवं समर्थन से यह एक जनान्दोलन का रूप लेता जा रहा है। लेकिन अफसोस जनक बात है कि इसको स्थानीय प्रिन्ट मीडिया ने तो ग्वालियर से लेकर अदयतन भरपूर कवरेज दिया है कुछ राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय अखबारों तथा चैनलो में भी इसका जिक्र है लेकिन आम आदमी की बेदना से जुड़ा महत्वपूर्ण जन आन्दोलन जिसे राष्ट्रीय एवं अर्तराष्ट्रीय समर्थन के साथ जन जन का सहयोग एवं समर्थन हासिल है राष्ट्रीय समाचार पत्र एवं चैनलों की नजरों से ओझल है हालांकि आन्दोलन का मकसद ना तो कोई प्रचार हासिल करना है और ना ही यात्रा के नायक पी.व्ही. राजगोपाल को ही इसकी कोई चाह है। लेकिन फिर भी देश की सत्तर फीसदी आवादी के अधिकारों से जुडे इस सत्याग्रह की उपेक्षा छोटी छोटी घटनाओं को तिल का ताड़ बनाकर प्रस्तुत करने वाले चैनलो एवं राष्ट्रीय समचार पत्रों के समक्ष एक गहरा सवाल छोड़ती है।
लगभग एक माह तक 25 हजार लोगों की भागीदारी के साथ पूरे व्यवस्थित ढंग से चलने वाली देश व दुनिया की इस विशालतम पदयात्रा को जिसने भी देखा इसमें शामिल लोगो के अनुशासन एवं संकल्पशीलता को सराहे बगैर नही रह सका। रोज सुबह जल्दी-जल्दी तैयार होकर पदयात्रा शुरू करना दोपहर नहा धोकर आराम कर शाम को चर्चा, सामूहिक, नृत्य गीत की महफिलों से अपनी थकान दूर कर सो जाना अब इनकी दिनचर्या बन चुका हैं।
इन हजारों सत्याग्रहियों के कदम हर सुबह पूरे आत्म विश्वास के साथ अपनी मंजिले को बड़ जाते है। इस बात से बेखबर कि उनके कदमों से सरकार कितनी विचलित हैं। मौसम ने भी पहले तेज धूप और अब रात में सर्दी होने से खुले आसमान में सड़क पर ही सोने बाले इन मुसाफिरों की परीक्षा लेना जारी रखा है। लेकिन अपने नायक राजगोपाल के प्रति अटटू आस्था एवं अपने अधिकार पाने की लालसा लिये ये हर बाधा का पार करके आगे बढ़ रहे है।
एकता परिषद के इस कारवां में ज्यादातर वे गरीब फटेहाल लोग है। आन्दोलन में कुछ लोग नंगे पांव चल रहे है तो किसी के पास पूरे कपड़े नही है फिर भी आन्दोलन से जुड़े किरदारो की प्रतिबध्दता न केवल सराहनीय है अपितु प्रेरणादायी भी है जो हमेशा से अपने अधिकारों से बंचित रहे है, तथा स्वंतत्र भारत में सरकार की नीतियो से इन्हे आज तक कुछ भी हासिल नही हुआ कदाचित विकासीय सभ्यता एवं आंकड़ो की चकाचौंध मे जीने वाले लोग पहली बार समाज के उस अन्तिम व्यक्ति की व्यथा से रूबरू हुआ है। शहरी सभ्यता के लोगों ने पदयात्रा में शामिल लोगों के माध्यम से उस असली भारत के दर्शन किये है। पदयात्रियों का मौन एवं अनुशासन ही उनकी अभिव्यक्ति है उनकी हालत देख लोग हैरान रह जाते है। कि आजादी साठ साल बाद भी इस देश में गरीबी किस भयावह स्वरूप में मौजूद है। पदयात्रियों की हालत एवं फक्कड़पन ही उनका मुकम्मल बयान है
सत्याग्रह को स्थानीय स्तर पर प्रिन्ट मीडिया ने इसे पर्याप्त महत्व दिया है अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बी.बी.सी चैनल सहित कई समाचार पत्रों में तबज्जो मिली है। लेकिन देश के राष्ट्रीय समाचार पत्र एवं चैनलों ने बंचितों के इस सत्याग्रह को उतनी तबज्जो नही दी जितनी उन्हे देना चाहिये आमजन की इस गहरी पीड़ा एवं आजादी के बाद असली अजादी की लड़ाई को इन्होने किसी चश्मे देखा है क्या जाने। लेकिन ट्रेफिक हवलदार की पिटाई या अन्य एसी ही तमाम हिंसक घटनाओं को चटपटी बनाकर घंटो अपने चैनलों पर परोसने बाले चौथे स्तम्भ के इन आधार स्तम्भो में जनादेश सत्याग्रह के उददेश्यों को मामूली तौर पर समझकर इस वर्ग की पीड़ा को तनिक संवेदनशील होकर अभिव्यक्ति दी होती तो उनकी टी.आर.पी नही बढ़ती लेकिन यह देश के उन बहुसंख्यक वर्ग की अभिव्यक्ति होते जिसे जिन्दा रहने के लिये एवं अदद रोटी की जरूरत है। और इसके लिये वह पिछले छह दशकों से सियासतदारों से छला जाता रहा है।

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