सोमवार, 1 अक्तूबर 2007

हम ही पुलिस, हम ही जज- नवभारत टाइम्‍स

हम ही पुलिस, हम ही जज- नवभारत टाइम्‍स

Friday, September 28, 2007 11:51:07 pm ]

 

जोगिन्दर सिंह

हमारे देश में जैसे कानून को अपने हाथ में लेने का सिलसिला चल पड़ा है। वैसे तो किसी न किसी मामले पर जनता का गुस्सा कहीं न कहीं फूटता रहता है, लेकिन पिछले दिनों ऐसा लगा मानो यह एक ट्रेंड बन गया हो। यहां तक कि चोरी जैसे छोटे मामलों में भी आरोपी को फौरन और बेहद सख्त सजा देने के कई मामले सामने आए हैं। यह ट्रेंड तब फोकस में आया, जब भागलपुर में एक युवक को मोटरसाइकल से बांध कर घसीटा गया, जिसे टीवी कैमरे ने दर्ज कर लिया। उसके बाद बिहार के ही वैशाली जिले में गांव वालों ने दस संदिग्ध चोरों को पीट-पीटकर मौत के घाट उतार दिया। देश के कई हिस्सों में ऐसी घटनाएं दोहराई गईं।

इंगलिश में इस किस्म की घटनाओं के लिए एक शब्द है- विजिलेंट जस्टिस। इसका मतलब है बिना कानूनी प्रक्रिया से गुजरे किसी मामले का निपटारा करना। वैसे इस किस्म के न्याय की हमारे यहां पुरानी परंपरा रही है। एक समय गांव के मुखिया, ठाकुर या चौधरी अपने दरबार में जो 'न्याय' करते थे, वह इसी तरह का था। आज भी गांवों की पंचायत ऐसे फैसले सुनाती है, खासतौर से अंतरजातीय या अंतरगोत्रीय शादियों के मामले में। देश के कानून और न्याय तंत्र में इस किस्म के फैसलों के लिए कोई जगह नहीं है। शहरों में भी गुंडे और डॉन सजाएं बांटते फिरते हैं। कई इलाकों में यह एक पैरेलल जस्टिस सिस्टम की तरह मौजूद है।

वैशाली में दस लोगों की हत्या करने वाले कोई गुंडे या डॉन नहीं थे। वे सामान्य ग्रामीण थे। उनका कहना है कि दो महीने से उनके घरों में चोरियों का सिलसिला जारी था। पुलिस से उनकी शिकायत बेअसर रही थी। वे इन घटनाओं से आजिज आ चुके थे। उन्होंने खुद चौकसी करनी शुरू कर दी, चोरों को पकड़ लिया और लगे हाथों उनके अपराध का फैसला कर दिया। ये ग्रामीण अपने किए पर कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं करते। जैसा कि सभी जानते हैं भागलपुर की घटना को तो पुलिसकर्मियों ने ही अंजाम दिया था। बेगूसराय में भी जब दो चोरों को सरेआम पीटा गया, तो पुलिस वहां मौजूद थी।

आज देश के सामने सवाल यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों लोग मामूली घटनाओं पर भी आपा खो रहे हैं और संदिग्ध लोगों की जान ले रहे हैं? पुलिस भी इस कवायद में शामिल क्यों हो जाती है? इन सवालों का एक ही जवाब है- कानून और न्याय के सिस्टम से लोगों का भरोसा उठ गया है। ऐसा नहीं है कि भारत के लोग अचानक हिंसक हो उठे हों, बल्कि उन्हें लगने लगा है कि अपने मामले खुद ही निपटाने होंगे। सरकार, पुलिस या अदालत उनकी कोई मदद नहीं कर सकती। वैसे आपको याद दिला दें कि कानून पर अविश्वास का कुछ न कुछ अंश हर सोसायटी में हर जमाने में मौजूद रहता है। दरअसल इसी वजह से वे अपराध होते हैं, जिन्हें हम बदला कहते हैं। भारत में इसकी अनगिनत मिसालें मिल जाएंगी, लेकिन शायद सबसे चर्चित मामला था 1959 का नानावती केस, जिसमें नेवल कमांडर नानावती ने अपनी पत्नी के प्रेमी की हत्या कर डाली थी। हाल का नैना साहनी तंदूर केस भी इसी कैटिगरी में आता है। सड़कों पर होने वाली ज्यादातर लड़ाइयां इसीलिए होती हैं कि लोग पुलिस और अदालत का इंतजार नहीं करना चाहते।

लेकिन जब ऐसी हत्याएं सामूहिक तौर पर होने लगती हैं और विजिलेंट जस्टिस एक ट्रेंड बनने लगता है, तो उसे मामूली अपराध कहकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसीलिए इस ट्रेंड पर हमारे देश में गहरा चिंतन होना चाहिए और इसे रोकने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए। लोगों को किसी डंडे के जोर पर ऐसा करने से नहीं रोका जा सकता। आखिर ऐसा करना तो पहले से ही अपराध है। लोगों के दिमाग में यह बात बैठानी होगी कि विजिलेंट जस्टिस सही रास्ता नहीं है। लेकिन यह कैसे होगा? इसके लिए तो आपको यह साबित करना होगा कि कानून और न्याय का सामान्य रास्ता सबसे अच्छा, आसान और भरोसेमंद है। यानी एक बार फिर हम अपने जंग लगे क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को सुधारने के सवाल पर लौट आते हैं, जो हाल के दिनों का सबसे ज्यादा चर्चित विषय बन चुका है।

हमारे पाठकों को इस बात का अच्छा अंदाजा हो चुका होगा कि इंसाफ के नाम पर हम कितने बड़े संकट में फंसे हैं। इन आंकड़ों को फिर से दोहराने का कोई मतलब नहीं कि किस अदालत में कितने मामले फंसे हुए हैं। बस इतना कहना काफी होगा कि अगर सामान्य चाल से उन्हें निपटाया जाए तो इसमें सौ-पचास साल लग जाएंगे। इसी तरह यह दोहराने की भी जरूरत नहीं कि हमारी जेलें विचाराधीन कैदियों से भरी हैं और कई कैदी 25 साल से फैसले का इंतजार कर रहे हैं।

इस सिस्टम को ओवरहॉलिंग की जरूरत है। वह कैसे हो? जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूं, इसकी शुरुआत अदालतों पर से ऐसे मामलों का बोझ घटाकर की जानी चाहिए जो बेहद मामूली हैं और लोक अदालतों या दूसरे तरीकों से निपटाए जा सकते हैं, जैसे ट्रैफिक के मामले, वैवाहिक विवाद और चेक बाउंस। ऐसे केसों की तादाद लाखों में है और ये अदालतों का कीमती वक्त जाया कर रहे हैं। पिछले दिनों एक कमिटी ने मामलों का क्लासिफिकेशन करने और अलग-अलग संहिता बनाने की सिफारिश की है। इससे भी छोटे मामलों को निचले स्तर पर या आपसी सुलह के जरिए निपटाना आसान हो जाएगा। जजों की खाली जगहें भरकर और उनकी तादाद बढ़ाकर केसों की रफ्तार तेज की जा सकती है। इसमें कंप्यूटराइजेशन से भी मदद मिलेगी। जांच के पुलिस तंत्र को भी सुधारे जाने की जरूरत है। अगर लोगों को कुछ ही महीनों के भीतर इंसाफ मिलने लगे, तो फिर वे कानून अपने हाथ में लेने का जोखिम नहीं उठाएंगे।

लेकिन यह तो तभी होगा, जब सरकारों की नींद खुले। असल दिक्कत यही है कि क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में सुधार के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है। न तो पब्लिक कभी इस मुद्दे को इतने पुरजोर अंदाज में उठाती है कि यह चुनावी मुद्दा बन जाए और न ही नेताओं को इसमें कोई फायदा नजर आता है। बहुत से नेताओं के लिए तो इंसाफ का गायब होना एक वरदान की तरह है।

लेकिन विजिलेंट जस्टिस का ट्रेंड एक दिन बैड गवर्नेंस की मिसाल बन सकता है। तब तो सरकारों की नींद टूटेगी ही टूटेगी।

 

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