सोमवार, 1 अक्तूबर 2007

अदालत की बेइज्जती किसे कहेंगे –नवभारत टाइम्‍स

अदालत की बेइज्जती किसे कहेंगेनवभारत टाइम्‍स

राजेंद्र शर्मा
[Sunday, September 30, 2007 10:13:12 pm ]

सुप्रीम कोर्ट ने अदालत की मानहानि के मामले में चार पत्रकारों के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को फिलहाल रोक दिया है। इस तरह देश की सबसे ऊंची अदालत ने यह संकेत दिया है कि वह कंटेंप्ट के मामले में पत्रकारों को जेल में डालने के लिए बहुत उत्सुक नहीं है। ऐसा रुख यह अदालत पहले भी दिखा चुकी है। 2001 में अरुंधति राय को एक दिन की सजा दिए जाने के बाद कंटेंप्ट से संबंधित प्रावधानों पर बहस भड़क उठी थी, लेकिन उस मामले में भी मेधा पाटकर व अन्य को इसी अदालत ने आरोपमुक्त किया ही था।

मिड डे मामले में सुप्रीम कोर्ट की यह अनिच्छा और भी अहम हो जाती है। आखिरकार जिस मामले का नोटिस लेकर हाई कोर्ट ने चार मीडियाकर्मियों को सजा सुनाई थी, वह सुप्रीम कोर्ट से ही संबंधित था। अब जबकि हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुनवाई की अपील सुप्रीम कोर्ट ने मंजूर कर ली है, तो हाई कोर्ट के निर्णय के बुनियादी तर्क की भी न्यायिक परीक्षा होगी। उसका तर्क यह है कि दिल्ली में सीलिंग के फैसले से अपने परिवार को फायदा पहुंचाने का जो आरोप अखबार ने तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश वाई. के. सभरवाल पर लगाया था, उससे अदालत की छवि पर दाग लगा। कैसे? क्योंकि चीफ जस्टिस के खिलाफ आरोप लगाना 'खुद ब खुद यह संकेत करता है' है कि सुप्रीम कोर्ट के अन्य न्यायाधीश या तो कठपुतली थे या फिर सहायक! जाहिर है, इस तर्क का न्यायिक परीक्षा में वैध साबित होना संदेह के घेरे में है। लेकिन इससे अलग एक और मुद्दा यह है कि अगर इस मामले में कंटेंप्ट का कोई मामला बनता भी है तो सुप्रीम कोर्ट के कंटेंप्ट का बनता है, हाई कोर्ट के नहीं। याद रहे कि संविधान की धारा 215 के तहत हाई कोर्ट को अपने कंटेंप्ट के आरोपों की सुनवाई का अधिकार है। इसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने कंटेंप्ट के आरोपों की सुनवाई का भी इंतजाम है। सही तो यह है कि वे अपने से जुड़े मामले खुद निपटाएं।

दरअसल कोर्ट के कंटेंप्ट की समूची व्यवस्था न सिर्फ जनतंत्र, बल्कि न्यायिक प्रणाली के भी प्राकृतिक नियमों को सस्पेंड किए जाने की मांग करती दिखती है। जनतंत्र की बुनियादी शर्त है कानून के सामने सभी नागरिकों की बराबरी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार और उससे निकला मीडिया की स्वतंत्रता का आदर्श कार्यपालिका या विधायिका के हमलों के खिलाफ जितना रक्षणीय है, उतना ही रक्षणीय न्यायिक दखल से भी क्यों नहीं होगा? इस भोले विश्वास को चाहे कितना ही बढ़ावा क्यों न दिया जाए, इसका कोई आधार नहीं है कि राज्य के अन्य बाजुओं से अलग, न्यायपालिका जनतंत्र की स्वाभाविक पक्षधर है। कंटेंप्ट का कानून साफ तौर पर न्यायिक फैसलों की जनतांत्रिक परख के सामने दीवार खड़ी करता है। इसी प्रकार न्यायिक प्रणाली की बुनियादी शर्त (जो कि अब कॉमन सेंस भी बन चुकी है) यही है कि मुद्दई, मुंसिफ और वकील एक ही हो तो इंसाफ नहीं हो सकता। कंटेंप्ट से संबंधित व्यवस्था इस शर्त के खिलाफ जाती है।

अगर कोर्ट के कंटेंप्ट की व्यवस्था को पूरी तरह से खत्म करना मुमकिन न हो, तब भी उसके दायरे को कम से कम और उसके इस्तेमाल को दुर्लभ से दुर्लभ जरूर बनाया जाना चाहिए। ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया आदि कई देशों की जनतांत्रिक व्यवस्था ने बाकायदा ऐसा किया है। खुद हमारे सुप्रीम कोर्ट के मई 2007 के एक फैसले में ऐसे जजों की आलोचना की गई थी जो न्यायपालिका की गरिमा की रक्षा करने का भार अपने कंधों पर उठाए घूमते हैं और यह समझते हैं कि न्यायपालिका की प्रतिष्ठा इतनी कमजोर है कि किसी आलोचना या आरोप भर से तहस-नहस हो जाएगी। जस्टिस आर. वी. रवींद्न तथा एल. एस. पांटा ने तो इस सिलसिले में चेतावनी भी दी थी कि, 'पिछले कुछ अरसे से लोगों के बीच यह अहसास जड़ें जमा रहा है कि कभी-कभी कुछ जज अति संवेदनशीलता दिखा रहे हैं और यह प्रवृत्ति रहती है कि तकनीकी उल्लंघनों तथा अनजाने में किए गए कामों को भी कंटेंप्ट की तरह लिया जाए।'

अचरज की बात नहीं कि खुद न्यायिक व्यवस्था से जुड़े लोगों समेत जनतंत्र की परवाह करने वाले लोगों की खासी बड़ी संख्या, कंटेंप्ट की व्यवस्था को ज्यादा से ज्यादा सीमित करने का आग्रह करती रही है। मिड डे प्रकरण में हाई कोर्ट के जजमेंट के बाद इसकी जरूरत और भी बढ़ जाती है, क्योंकि यह न्यायिक क्षेत्र को सार्वजनिक जांच-पड़ताल से पूरी तरह ऊपर रख दिए जाने का मामला है। अपने जजमेंट में हाई कोर्ट ने अखबार की रिपोर्टों में लगाए गए आरोपों के सही-गलत होने पर विचार करने से ही इनकार कर दिया, जबकि सत्य को कंटेंप्ट के दायरे से बाहर रखने का सिद्धांत हर कहीं मान्य है। यह खुद न्यायपालिका की प्रतिष्ठा के लिए नुकसानदेह ही होगा। जैसा कि मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के कंटेंप्ट संबंधी फैसले को उलटते हुए सुप्रीम कोर्ट की ही दो सदस्यीय पीठ ने कहा था, 'बाकी सभी की तरह जजों को भी सम्मान अर्जित करना होता है, यह मांगा नहीं जा सकता है।'

कमिटी फॉर जुडिशल अकाउंटेबिलिटी और जन हस्तक्षेप द्वारा पिछले ही दिनों राजधानी में आयोजित एक सेमिनार ने कंटेंप्ट संबंधी व्यवस्था को नियम नहीं, अपवाद बनाने के लिए दो अहम सुझाव दिए हैं। पहला, 1971 के कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट कानून को सुधारकर उसमें साफ किया जाए कि अदालत की कड़ी से कड़ी आलोचना और किसी जज या जुडिशरी के खिलाफ किसी भी आरोप को सिर्फ तभी दंडनीय माना जाएगा, जब उसे निराधार तथा दुर्भावनापूर्ण दोनों ही साबित किया जा सके। दूसरा, ऐसे मामलों की सुनवाई पांच जजों की बेंच करे। याद रहे कि इस मुद्दे पर चलाए गए सार्वजनिक अभियानों के बाद 2006 में संसद ने अवमानना कानून में संशोधन कर आरोपों की सत्यता को वैध बचाव मानने का प्रावधान जोड़ा था। लेकिन, दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला इस बचाव को सीधे-सीधे नजरअंदाज करता नजर आता है।

साफ है कि न्यायपालिका का एक हिस्सा पारदर्शिता को न्यायपालिका की गरिमा के लिए खतरनाक मानता है। उदारीकरण के मौजूदा दौर में यह प्रवृत्ति और भी बढ़ रही है, क्योंकि राज्य के अन्य अंगों की ही तरह लोकहित से न्यायपालिका की भी दूरी बढ़ रही है। न्यायपालिका खुद को जनतांत्रिक जवाबदेही से ऊपर रखने की अगर कोशिश करेगी, तो अपनी प्रतिष्ठा ही गिराएगी और कानून के शासन को भी कमजोर करेगी, जिसकी रक्षा के लिए उसे बनाया गया है।

 

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