तोमर राजवंश : ग्वालियर साम्राज्य स्थापना के 600 वर्ष पूर्ण
प्रस्तुति : नरेन्द्र सिंह तोमर ''आनन्द''
(समस्त तथ्य व आंकड़े मय तिथियां तोमर राजवंश की वंशावली से लिये व उध्दृत किये गये हैं )
· सन् 1409 में महाराजा देववरम ने की ग्वालियर पर तोमर राज्य की स्थापना
· महाराजा देववरम थे तोमर राजवंश के ग्वालियर साम्राज्य के प्रथम महाराजा
विशेष :- लेखक महाराजा देववरम का वंशज है और वंश का उत्तराधिकारी है !
दिल्ली की स्थापना करने वाले महा प्रतापी तोमर राजवंश से भला कौन अपरिचित होगा, महाभारत जैसा महासंग्राम लड़ने और फिर विजय श्री का वरण करने वाले पाण्डवों की वीरता और न्यायप्रियता से भला कौन अनभिज्ञ होगा !
महाभारत संग्राम में अदभुत वीरता का परिचय देने वाले भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य मित्र व कृपाप्राप्त पाण्डवों और महायोध्दा अर्जुन के नाम से शायद ही कोई हो जो अज्ञान हो !
अर्जुन तथा उनकी पत्नी व प्रिया सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु , इससे आगे जाकर अभिमन्यु व उत्तरा के पुत्र महाराजा परीक्षत , महाराजा परीक्षत के पुत्र जन्मेजय तथा जन्मेजय का सर्प यज्ञ विश्वविख्यात ही है ! पाण्डवों द्वारा स्थापित खण्डव वन को भस्म कर इन्द्रप्रस्थ के नाम से अदभुत महल व नगर ही असल में दिल्ली की प्रथम स्थापना है, उसके पश्चात महाराजा जन्मेजय के वंशप्रवाह में ही इसे इसी तोमर राजवंश ने डिल्ली यानि अपभ्रश नाम से दिल्ली का स्थापन किया और हस्तिनापुर की राजधानी के तौर पर संचालित किया !
यद्यपि महाराजा परीक्षत से लेकर महाराजा अनंगपाल सिंह तोमर तक कई पीढ़ियां वंशावली के तहत बदलीं हैं और दिल्ली साम्राज्य के उत्तराधिकारी के तौर पर महाराजा अनंगपाल सिंह तोमर (तोमर राजवंश के दिल्ली साम्राज्य के अंतिम महाराजा तथा भारत के अंतिम हिन्दू साम्राज्य का अंतिम राजवंश तोमर राजवंश है )
महाराजा अनंगपाल सिंह तोमर के कोई पुत्र नहीं था , एक पुत्र था जिसे राजनीतिक षडयंत्र के तहत चुपके से जन्म होते ही बाहर भिजवा दिया और महाराज एवं महारानी को मृत पुत्र उत्पन्न होने की सूचना दी गयी (वंशवली के मुताबिक यही पुत्र महाप्रतापी सम्राट मोम्मद गौरी के नाम से विख्यात हुआ और बदला लेने के लिये दिल्ली पर हमला किया) महाराजा अनंगपाल सिंह तोमर की पुत्री से उत्पन्न महाप्रतापी पुत्र पृथ्वीराज सिंह चौहान रिश्ते में महाराज अनंगपाल सिंह का दौहित्र (धेवता) था !
महाराज अनंगपाल सिंह को महर्ष्ाियों व तपस्वीयों द्वारा आज्ञा देकर संतान प्राप्ति के लिये तीर्थस्थान में जाकर पुत्र यज्ञ व तपस्या का निर्देश दिया गया ! महाराज अनंगपाल इस पुत्र यज्ञ के लिये तीर्थ की ओर रवाना होने से पहले दिल्ली साम्राज्य की बागडोर (केवल कुछ समय के लिये) अपने एकमात्र रिश्तेदार व दौहित्र पृथ्वीराज सिंह चौहान को सौंप गये !
यज्ञ व तपस्या उपरान्त महाराजा अनंगपाल सिंह तोमर के एक पुत्र हुआ जिसका नाम सोनपाल (इतिहासकारों ने इसका नाम तोलपाल या तोनपाल लिखा है तो कि गलत है वंशावली के मुताबिक इसका नाम सोनपाल है ) हुआ !
राजकुमार सोनपाल के साथ महाराज अनंगपाल सिंह तोमर वापस दिल्ली आये और पृथ्वीराज सिंह चौहान से अपना साम्राज्य वापस उन्हें सौंपने की आज्ञा दी ! पृथ्वीराज ने अपने नाना का उपहास उड़ाते हुये कहा कि ''नाना राज्य तो युध्द करके पाये जाते हैं यदि राज्य चाहिये तो युध्द करो और अपने राज्य को मुझसे जीत लो '' महाराजा अनंगपाल सिंह अपने दौहित्र पृथ्वीराज के उत्तर से असमंजस में पड़ गये !
महाराज अनंगपाल सिंह ने गंभीर विचार विमर्श किया और सोचा कि अगर अपने ही दौहित्र से मैं युध्द करूंगा और मैं युध्द जीत गया एवं किसी तरह मेरे ही हाथों मेरा दौहित्र मारा गया या पराजित हुआ (तोमर राजवंश में बहिन बेटी भानजा दौहित्र पूज्य व सम्माननीय होते हैं) या मेरा दौहित्र युध्द में पराजित हुआ तो वंश कलंक स्थापित हो जायेगा और यदि मैं इससे युध्द हार गया यानि मुझे युध्द में इसके हाथों यदि पराजय मिली तो पूर्वज पाण्डवों द्वारा विजित महासंग्राम महाभारत और उसकें पश्चात निरंतर विजय प्राप्त करने तथा अखण्ड प्रतापी साम्राज्य परम्परा को कलंक लगेगा और भारी अपयश प्राप्त होगा ! इन विचारों के साथ महाराजा अनंगपाल सिंह ने पृथ्वीराज के साथ युध्द का विचार त्याग दिया , और पृथ्वीराज से कहा - ठीक है पुत्र यदि तेरे भीतर पाण्डवों के इस महान साम्राज्य पर राज्य करने की लोभी प्रचृत्ति सवार हो ही गयी है तो तू यहाँ संभाल, किन्तु सदा स्मरण रखना कि यह गददी तोमर राजवंश की है और सदा उसी की रहेगी ! तू कुछ समय राज्य का संचालन कर ले , बाद में मेरा पुत्र और मेरे वंशज का ही दिल्ली पर शासन होगा, मैं इसे सहर्ष तुझे इसे सिंहासन के संचालन पर रखवाला बनाता हूँ ! इसके पश्चात पृथ्वीराज ने अपने नाना को कई भेंट व उपहार देकर विदा किया तथा भेंट में कई हाथी भी दिये, महाराज अनंगपाल सिंह सें कहा नाना यह गददी आपके नाम से ही चलाऊंगा, और आपको जो हाथी मैंने दिया है वह जहाँ जाकर बैठेगा वहीं से आपका साम्राज्य प्रारंभ हो जायेगा , आप वहाँ अपना राज्य प्रारंभ कर लें !
वंशावली विवरण अनुसार यह हाथी लम्बी यात्रा के बाद चम्बल नदी के किनारे आकर ''ऐसाह'' नामक स्थान पर बैठे ! बस यहीं से आगे पुन: तोमर राजवंश का साम्राज्य प्रारंभ हुआ !
ऐसाह मुरैना जिला का तोमर राजवंश का पुराना दुर्ग, महल एवं भगेसुरी या भवेसुरी युक्त स्थान है जो कि ऐसाह गढ़ी के नाम से विख्यात है !
महाराज अनंगपाल सिंह तोमर ने ऐसाह में दुर्ग व महल स्थापित कराया एवं ऐसाह गढ़ी के नाम से साम्राज्य की स्थापना की !
महाराजा अनंगपाल सिंह तोमर के एकमात्र पुत्र सोनपाल सिंह तोमर ने अपने राज्यकाल में सोनियां (सिहोनिया) नामक नगर बसाया और सोनिया यानि सिंहोनिया में राजधानी को संचालित किया ! महाराजा सोनपाल सिंह की पत्नी नरवर के कछवाहे महाराजा की पुत्री ककनवती ने 11 वीं सदी में अपनी अभीष्ट पूजा व अपनी स्मृति चिरस्थायी रखने की इच्छाा से महाराजा सोनपाल सिंह से एक मन्दिर निर्माण की कामना की, महाराजा सोनपाल ने ककनवती के लिये उसके ही नाम से उसका इच्छित मन्दिर उसकी स्मृति को चिरस्थायी करते हुये निर्माण कराया तथा इसे ककनमठ के नाम से स्थापित व पूज्य किया गया ! महारानी ककनवती यहाँ भगवान शिव की पूजा उपासना के लिये निरन्तर आतीं रहीं ! वंशावली सूत्रों के अनुसार ककनमठ कई मन्दिरों का समूह था जिसमें प्रमुख मन्दिर (जो आज भी है) के दो प्रवेश द्वार थे ! इन प्रवेश द्वारों की व्यवस्था यह थी कि मुख्य द्वारा सिर्फ राज परिवार के प्रवेश के लिये रहता और दूसरा द्वारा सभी सामान्य भक्तों व साधु सन्यासियों के लिये खुला रहता !
महाराजा सोनपाल सिंह के पुत्र सुल्तानसाय यानि सुल्तान सहाय हुये ! महाराजा सुल्तान सहाय की पत्नी अकलकंवर वर्तमान राजस्थान के करौली राज्य के जादौन राजवंश के राजा हमीर सिंह की पुत्री थी ! महाराजा सुल्तान सहाय यानि सुल्तानसाय ऐसा व सोनयां राज्य पर यथावत राज्य करते रहे !
महाराज सुल्तानसाय व महारानी अकलकंवर के पुत्र कंवर सिंह हुये ! महाराज कंवर सिंह की पत्नी चित्तोड़गढ़ के महाराज सिसोदिया राजवंश के राणा रतन सिंह की बेटी हेमावती थीं ! महारानी हेमावती के साथ महाराज कंवर सिंह यथावत ऐसाह व सोनयां राज्य पर राज्य करते रहे !
महाराज कंवर सिंह और महारानी हेमावती के दो पुत्र हुये जिसमें एक पुत्र का नाम राव घाटमदेव तथा दूसरे पुत्र का नाम देववरम हुआ ! देववरम काफी प्रतापी और शूरवीर था !
महाराजकुमार राव घाटमदेव और देववरम के समक्ष क्षेत्र में साम्राज्य विस्तार और राज्य शक्ति विस्तार का प्रमुख लक्ष्य रहा ! इसके तहत राव घाटम देव ने 52 और 84 गांव के दो राज्य खण्ड स्थापित किये तथा देववरम ने बीसासुर यानि 120 गाँवों का राज्यखण्ड स्थापित किया ! इस प्रकार तोमर राज्य की शक्ति काफी प्रबल व समर्थ हो गयी ! राव घाटम देव के 52 और 84 तथा देववरम के 120 यानि बीसासुर को ही मिला कर तोमरघार यानि तंवरघार कहा जाता है ! तब स ेअब तक इस राजवंश के गाँव और शक्ति काफी विस्तारित हो चुकी है !
इस प्रकार अतुल्य शक्ति व सामर्थ्य स्थापना के बाद देववरम के हिस्से में ऐसाह की राजगददी आयी, और राव घाटम देव ने सोनयां पर राज्य किया ! महाराजा देववरम ने विक्रम संवत 1438 आषाढ़ के महीने में (मई जून सन 1381 में) ऐसाह के किले यानि ऐसाह गढ़ी का पुनरूध्दार किया और जीर्णोध्दार कराया तथा ऐसाह गढ़ी का साम्राज्य संचालित किया !
महाराजा देववरम ने अपनी शूरवीरता और पराक्रम से विक्रम संवत 1466 में (ई0 सन् 1409 में) ऐसाह से आकर ग्वालियर का किला अपने आधिपत्य में लिया और ग्वालियर राज्य पर तोमर राजवंश के साम्राज्य की स्थापना की ! महाराजा देववरम ग्वालियर साम्राज्य के पहले तोमर राजा हुये ! महाराज देववरम का शासनकाल अत्यंत स्वर्णिम और तोमर राजवंश के भावी साम्राज्य स्थापना व संचालन का प्रमुख स्तम्भ था ! महाराज देववरम ही ग्वालियर राज्य पर तोमर राजवंश के प्रथम महाराजा एवं नींव संस्थापक रहे ! महाराजा देववरम ने 27 वर्ष तक ग्वालियर पर स्वर्णिम व प्रतापी राज्य किया !
महाराजा देववरम ने ग्वालियर शासनकाल में चतुर्भुज मन्दिर का निर्माण, लक्ष्मीनारायण मन्दिर, जीत महल, जैत या जीत स्तम्भ, तथा माण्डेर दुर्ग का निर्माण कराया !
महाराजा देववरम ने ईसवी सन् 1409 में ग्वालियर में तोमर राज्य की पताका फहरा कर तोमर राजवंश का वैभवशाली साम्राज्य स्थापित किया जिसे इस वर्ष पूरे 600 वर्ष हो चुके हैं ! मुझे इस वंश का गौरवशाली उत्तराधिकारी होने गर्व है !
टीप:- समस्त तथ्य व आंकड़े तोमर राजवंश के वंशावली लेखक जिन्हें जगा या वृध्दावलि लेखक कहते हैं, तोमर राजवंश के वंशावली लेखक जगा श्री सरवन सिंह से सविनय सधन्यवाद प्राप्त किये गये हैं एवं उन्हीं की आज्ञा से उध्दृत किये गये हैं ! तोमर राजवंश की सम्पूर्ण वंशावली उन्हीं की सहायता व आज्ञा से तैयार की जा रही है एवं इसका कम्प्यूटराइजेशन व इण्टरनेट पर प्रसारण शीघ्र ही संभव होगा ! साथ ही इसका आडियो वीडियो एवं सी.डी में उपलब्ध कराने की भी चेष्टा की जा रही है, जिससे राजपूत वंशावली के बारे में व्याप्त भ्रम दूर हो सकें ! मुझे उनका आशीर्वाद व सहयोग प्राप्त हुआ है इसके लिये मैं ईश्वर एवं उनके प्रति कृतज्ञ हूँ !
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें