आतंकवाद पर राष्ट्रवाद का मुखौटा लगाने का खेल हुआ बेनकाब
निर्मल रानी
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भारतीय लोकतंत्र इन दिनों चुनाव रूपी अपना पंचवर्षीय महापर्व मना रहा है। देश की कई राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पार्टियां इस चुनावी महापर्व में अपनी मंजबूत उपस्थिति दर्ज कराने की नई से नई युक्तियां तलाश कर रही हैं। भिन्न-भिन्न राजनैतिक दल भिन्न-भिन्न वोट बैंकों पर निशाना साधते हुए भिन्न-भिन्न प्रकार के अस्त्रों का प्रयोग कर रहे हैं। कहीं कुछ राजनैतिक दल अल्पसंख्यक मतों को आकर्षित करने हेतु सार्वजनिक रूप से ऐसी घोषणाएं या ऐसी बातें कर रहे हैं जिनसे उन्हें अल्पसंख्यक समाज के मतों का लाभ मिल सके। वहीं कुछ दल ऐसे भी हैं जो बहुसंख्यक समाज के बीच अल्पसंख्यकों का भय पैदा कर मतों का सम्प्रदाय आधारित ध्रुवीकरण कराने की कोशिश में लगे रहते हैं। एक दल भारतीय राजनीति में ऐसा भी उदित हुआ जिसने दलित राजनीति को अपनी राजनीति का मुख्य आधार बनाया। परन्तु जब इस दल के मुखिया को यह महसूस हुआ कि केवल दलित समाज उसे सत्ता की गद्दी तक नहीं पहुंचा सकता, बस तुरन्त उस दल के नेता ने दलित या बहुजन समाज के हितों की बातें करना छोड़कर सर्वजन समाज की बातें करनी शुरु कर दीं।
इसी प्रकार देश के कुछ क्षेत्रीय दल ऐसे हैं जो अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के दिलों में बहुसंख्य समाज का भय दिखाकर तथा स्वयं को अल्पसंख्यक समुदाय का मसीहा बताकर, उनसे वोट हासिल करना चाहते हैं। कहा जा सकता है कि प्रत्येक पंचवर्षीय चुनावी महापर्व में ही देश के विकास का मुद्दा जोकि शत् प्रतिशत् मुख्य चुनावी मुद्दा होना चाहिए, बहुत पीछे छूट जाता है तथा दुर्भाग्यवश सबसे आगे जो चुनावी मुद्दे सिर चढ़कर बोलते नंजर आते हैं, वे होते हैं साम्प्रदायिकता, जातिवाद, मन्दिर-मस्जिद, रामसेतु, राम जन्मभूमि, काशी-मथुरा का धर्म स्थलीय विवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद आदि। परन्तु इन सबके अतिरिक्त देश का एक राष्ट्रस्तरीय दल ऐसा ख़तरनाक खेल भी खेल रहा है जो वास्तव में किसी आतंकवाद से कम नहीं है। परन्तु दुर्भाग्यवश यह राजनैतिक दल उस आतंकवादी प्रयास पर राष्ट्रवाद का मुखौटा लगाने की नापाक कोशिशों में लगा रहता है। आईए नंजर डालते हैं कि भारत में हिंदुत्व के नाम पर केंद्रीय सत्ता पर ंकब्ंजा जमाने की कोशिश में लगी भारतीय जनता पार्टी किसी प्रकार आतंकवादी कोशिशों को राष्ट्रवाद का नाम देने की कोशिश करती है तथा किन-किन जगहों पर अपनी करतूतों से बेनंकाब हो चुकी है और होती रहती है।
2002 में गुजरात में हुए साम्प्रदायिक दंगों में नरेन्द्र मोदी सरकार को भारतीय मीडिया या भाजपा के विपक्षी दलों ने ही नहीं कोसा बल्कि अमेरिका जैसे देश ने भी नरेन्द्र मोदी का अमेरिका में प्रवेश वर्जित कर दुनिया को यह संदेश दे दिया कि नरेन्द्र मोदी एक विवादित व अविश्वसनीय नेता है। परन्तु भाजपा नेता आज 'वाईब्रेंट गुजरात' की बात तो 'इंडिया शाईनिंग' की तंर्ज पर कर रहे हैं। परन्तु देश की जनता को यह बताने की कोशिश नहीं करते कि आंखिर किन परिस्थितियों में देश का यह इकलौता मुख्यमंत्री अमेरिका का वींजा नहीं प्राप्त कर पा रहा है? आंखिर नरेन्द्र मोदी के चलते पूरे गुजरात राज्य को यह अपमान क्यों सहन करना पड़ रहा है? जब भाजपा नेता वर्तमान आम चुनावों के दौरान भारतीय मीडिया के माध्यम से जनता से रूबरू होते हैं तो नरेन्द्र मोदी को विकास पुरुष के रूप में पेश करने की कोशिश करते हैं। गुजरात दंगों की भयावहता तथा मोदी सरकार की उन दंगों में संलिप्तता को दरकिनार करते हुए यह बातूनी नेता कुछ ऐसे आंकड़े पेश करने की कोशिश करते हैं जिनसे यह साबित कर सकें कि नरेन्द्र मोदी ने गुजरात दंगों के दौरान एक कुशल मुख्यमंत्री की भूमिका अदा की थी। प्रश् यह है कि नरेन्द्र मोदी की इन्हीं उपलब्धियों का बखान कर यह नेता नरेन्द्र मोदी का अमेरिका का वींजा क्यों नहीं लगवा देते?
दरअसल देश की जनता भाजपा नेताओं द्वारा गुजरात की वास्तविकता उनके बताए आंकड़ों से नहीं बल्कि गुजरात की मोदी सरकार में मंत्री रहीं माया कोदनानी के संबंध में आए अदालती ंफैसले की नंजर से देख रही है। कितने आश्चर्य का विषय है कि गुजरात की एक महिला विधायक, समुदाय विशेष के लोगों का नरसंहार करने के समय स्वयं शारीरिक रूप से न केवल नरोदा पाटिया नरसंहार में मौजूद थी बल्कि अपनी रिवॉल्वर से समुदाय विशेष को निशाना बनाकर गोलियां भी चला रही थी तथा दंगाईयों को ज्वलनशील ईंधन भी उपलब्ध करा रही थी। परन्तु यदि आप माया कोदनानी की भारतीय जनता पार्टी के नेताओं, विकास पुरुषों अथवा लौहपुरुषों से इस विषय पर पूछें तो शायद यह आपको बताएंगे कि यह आतंकवाद नहीं बल्कि 'राष्ट्रवाद' है या 'यह तो क्रिया की प्रतिक्रिया है' या फिर यह कहेंगे कि अदालत के ंफैसले के बाद नरेन्द्र मोदी ने उसे मंत्री पद से हटाकर साहस का परिचय दिया है-- वंगैरह-वंगैरह।
आतंकवाद पर राष्ट्रवाद का मुखौटा लगाने का एक और उदाहरण उड़ीसा के कंधमाल में देखिए। कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद की दुर्भाग्यपूर्ण निर्मम हत्या के पश्चात बावजूद इसके कि माओवादी संगठनों ने उनकी हत्या की ंजिम्मेदारी ले ली थी परन्तु भारतीय जनता पार्टी व उसके सहयोगी संगठनों द्वारा गुजरात की ही तंर्ज पर बड़े पैमाने पर राज्य में हिंसक घटनाएं अंजाम दी गईं। सैकड़ों ईसाई मारे गए अथवा लापता हो गए तथा हंजारों अपने घरों से बेघर हो गए। इन हिंसक घटनाओं को अंजाम देने में तथा दंगों को उकसाने में कंधमाल में सबसे चर्चित नाम मनोज प्रधान तथा अशोक साहू के थे। मीडिया के समक्ष कंधमाल की हिंसक घटनाओं की निंदा करने वाली भाजपा द्वारा उसी मनोज प्रधान को विधानसभा चुनाव में दंगा प्रभावित क्षेत्र से पार्टी प्रत्याशी बनाया गया है तो अशोक साहू को भी कंधमाल से ही लोकसभा का प्रत्याशी बना दिया गया है। इससे बढ़कर दूसरा उदाहरण और क्या हो सकता है कि मनोज प्रधान तथा अशोक साहू नाम के जो व्यक्ति कंधमाल की वारदातों में आतंक का पर्याय बन चुके हों, उन्हीं व्यक्तियों को राष्ट्रवादी होने का प्रमाण पत्र देते हुए भारतीय जनता पार्टी उसी कंधमाल क्षेत्र से ऐसे व्यक्तियों को अपना प्रत्याशी बना रही है। क्योंकि भाजपा की नंजर में आतंकवाद की परिभाषा कुछ और है तथा राष्ट्रवाद की कुछ और।
परन्तु इन सब दोहरेपन के बावजूद भाजपा अब भारतीय मतदाताओं तथा भारत के सच्चे एवं वास्तविक राष्ट्रवादियों के समक्ष अब पूरी तरह बेनंकाब हो चुकी है। मुख्तार अब्बास नंकवी तथा शाहनवांज हुसैन जैसे अल्पसंख्यक 'शो पीस' अपनी पार्टी में रखने के बावजूद भाजपा अपनी 'संघी' संस्कृति से बाहर नहीं निकल पा रही है। चाहे वरुण गांधी को नैतिक व राजनैतिक समर्थन देने की बात करना हो या वरुण को अपना लोकसभा प्रत्याशी बनाए रखने के निर्णय पर ंकायम रहना या फिर मालेगांव धमाकों में पकड़े गए आतंकी नेटवर्क को कभी सामने से तो कभी ंकानूनी दांवपेंच का लिहांज करते हुए पीछे से समर्थन देना, शिवसेना जैसी साम्प्रदायिकता का जहर उगलने वाली पार्टी से गठबंधन रखना ऐसी और न जाने कितनी घटनाएं हैं जो यह प्रमाणित करने के लिए कांफी हैं कि लाल कृष्ण आडवाणी चाहे पाकिस्तान जाकर जिन्नाह की मंजार पर ंफातेहा पढ़ें, चाहे देश के विभाजन के ंजिम्मेदार रहे जिन्नाह हो धर्मनिरपेक्ष विचारों का नेता बताएं अथवा भाजपा में अपने इर्द-गिर्द कुछ मुस्लिम चेहरे खड़े रखें परन्तु पार्टी की वास्तविकता धीरे-धीरे अब खुलकर जनता के समक्ष आ चुकी है। दिन-प्रतिदिन भाजपा की लोकसभाई सीटों में कमी आना इस बात का पुख्ता सुबूत है। चुनावी सर्वेक्षणों के आधार पर वर्तमान चुनावों के आंकड़े इस बार भी भाजपा को गत् वर्ष की तुलना में कम सीटें दे रहे हैं। यदि ऐसा हुआ तो यह बिल्कुल सांफ हो जाएगा कि भाजपा नेता आतंकवाद पर राष्ट्रवाद का मुखौटा लगाने का कितना ही घिनौना खेल क्यों न खेलें परन्तु भारतीय मतदाताओं के समक्ष यह ंखतरनाक खेल अब पूरी तरह बेनंकाब हो चुका है।
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