देश का विकास और चक्का जाम की राजनीति
निर्मल रानी
163011, महावीर नगर, अम्बाला शहर,हरियाणा। फोन-0171-2535628 email: nnirmalrani@gmail.com
आमतौर पर पहिए या चक्के का सीधा रिश्ता विकास से ही जोड़ा जाता है। चाहे वह रेल का पहिया हो,कार,स्कूटर,ट्रक,बस आदि किसी वाहन का पहिया हो या फिर किसी मशीनरी का कोईचक्का या पहियारूपी कलपुंर्जा। ऐसा माना जाता है कि इन सभी पहियों या चक्कों के निरंतर घूमते रहने अथवा अधिक से अधिक घूमने या निर्धारित अवधि या सीमा तक घूमने पर ही पूरे देश के विकास का दारोमदर
है। ठीक इसके विपरीत यह भी माना जाता है कि यदि देश की प्रगति व विकास के प्रतीक यही पहिए या चक्के रुक गए तो मानो देश का विकास बाधित हो गया।
परंतु क्या हमारे देश के स्वयं को देशभक्त कहने वाले नेताओं को इस बात की सुध रहती है ैकि उन्हें ऐसे किसी विरोध प्रदर्शन का आयोजन अथवा नेतृत्व नहीं करना चाहिए जोकि देश के विकास को बाधित करने वाले विरोध प्रदर्शन हों? परंतु ठीक इसके विपरीत रेल रोकने,सड़कों पर यातायात जाम करने अथवा कल कारख़ानों में तालाबंदी करने जैसी आक्रामकता तो लगता है भारतीय राजनीति में सफलता का या तो एक पैमाना बन चुका है या फिर इस प्रकार की ंगैर ंकानूनी गतिविधियां व ंगैर कानूनी प्रदर्शन गोया भारतीय राजनीति में ंफैशन के रूप में अपनी जगह बना चुके हैं। ऐसे विरोध प्रदर्शनों में भी न तो नेताओं का कुछ बिगड़ता है और न ही सरकार का । बल्कि दुर्भाग्यवश यहां भी आम आदमी ही इन सब अव्यवस्थाओं से सबसे अधिक प्रभावित होता है।
इस प्रकरण में एक और सबसे बड़ी आश्चर्यजनक बात यह है कि ऐसे विकास विरोधी कहे जा सकने वाले प्रदर्शनों या चक्का जाम का नेतृत्व करने वाला नेता स्वयं को किसी बड़े महारथी से कम नहीं समझता। आपको राजस्थान के गुर्जर आंदोलन के वे दिन तो भली-भांति याद हाेंगे जबकि किरोड़ीमल बैंसला नामक एक पूर्व सेना अधिकारी के नेतृत्व में राजस्थान के गुर्जर समुदाय ने एकजुट होकर भारतीय रेल के चक्के जाम कर दिए थे। कई दिनों तक दिल्ली-मुंबई, दिल्ली-गुजरात,दिल्ली-राजस्थान रेल मार्ग पूरी तरह बंद पड़ा था तथा कई जगह से रेल मार्ग को भारी क्षति भी पहुंचाई गई थी। इसके अतिरिक्त उसी दौरान राजस्थान से गुंजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग भी जाम,तोड़फोड़ तथा आगजनी की चपेट में थे। परंतु इस आंदोलन के बाद,जिसमें कई आंदोलन कारी गुर्जरों को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ा,कर्नल बैंसला एक क्रांतिकारी एवं जुझारू नेता के रूप में देश में जाने गए। अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए उन्हाेंने लोकसभा व विधानसभा के चुनावों में भी अपना भाग्य आंजमाया। यह अलग बात है कि वे अपने इन प्रयासों में सफल नहीं हो सके। गुर्जर समुदाय को अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की मांग को लेकर चलाए जाने वाले इस आंदोलन में देश को हजारों करोड़ रुपये की आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ा। इस नुंकसान के लिए आख़िर ंजिम्मेदार कौन है? कोई राष्ट्रभक्त,बिरादरी भक्त,समुदाय विशेष का देशभक्त रहनुमा जोकि सीमित समाज में अपनी चौधराहट बरंकरार रखने के लिए देश को होने वाली इस क्षतिपूर्ति के लिए न तो सामने आता है न ही इस क्षतिपूर्ति के उपाय बताता है। बजाए इसके यह तथाकथित राष्ट्रभक्त नेता इस प्रकार की क्षति देश को पहुंचाने जैसे कारनामों को शायद अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं।
विरोध प्रदर्शनों तथा जाम आदि की सबसे पहली शिकार या तो रेल होती है या देश के राजमार्ग इस मानव निर्मित आपदा का शिकार होते हैं। पिछले दिनों पंजाब,पश्चिमी उत्तरप्रदेश तथा बिहार से भी ऐसे समाचार प्राप्त हुए। गोया हम कह सकते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था को ठेस पहुंचाने वाले आक्रामक विरोध प्रदर्शन संभवत:भारतीय राजनीति विशेषकर विपक्ष की राजनीति का एक प्रमुख अंग बन चुके हैं। लगता है हमारे देश के इन सफ़ेदपोश तथाकथित राष्ट्रभक्तों का ध्यान ही इस बात की ओर नहीं जाता जोकि उन्हें यह ज्ञान दे सके कि देश की अर्थव्यवस्था को नुंकसान पहुंचाने वाले चक्का जाम जैसे प्रदर्शन करने के अतिरिक्त अपना विरोध दर्ज करने के कोई और उपाय तलाश करें ताकि देश के विकास का पहिया भी अपनी निर्धारित रफ्तार से घूमता रहे एवं प्रदर्शनकारियों के विरोध प्रदर्शन के स्वर भी लोकतांत्रिक एवं अहिंसक तरीक़े से बुलंद होते रहें।
यहां जापान जैसे देश में व्यवस्था के विरुद्ध प्रदर्शन करने के एक प्रसिद्ध तरीके क़ा उल्लेख करना उचित होगा। गाैरतलब है कि दुनिया के पहले और अब तक के आख़िरी परमाणु हमले का सामना करने वाले जापान की अमेरिका ने कमर तोड़कर रख दी थी। हिरोशिमा व नागासाकी जैसे जापान के प्रमुख नगरों को अमेरिकी परमाणु बमों ने राख के ढेर में तबदील कर दिया था। परंतु अपनी दूरअंदेश नीतियों तथा जापानियों में पाये जाने वाले राष्ट्रभक्ति के जज्बे ने उसी जापान को आज पहले से कहीं अधिक सुदृड़ व संपन्न कर लिया है। वहां के विरोध प्रदर्शनों का तरीका यह है कि उदाहरणार्थ किसी जूते की फैक्ट्री में हड़ताल होती है तो श्रमिकगण जूतों का सामान्य रूप से उत्पादन करने के बजाए हड़ताल के दिनों में केवल एक ही पैर के जूतों का निर्माण करते हैं। परिणामस्वरूप जूतों का उत्पादन भी नहीं रुकता तथा जूते बाजार में जाने योग्य भी नहीं रहते। इस प्रकार जब प्रशासनिक व्यवस्था से उनकी सुलह सफ़ाई हो जाती है उसके बाद यही श्रमिक अपनी पूरी शक्ति लगाकर दूसरे पैर के उतने ही जूते तैयार कर देते हैं। इस प्रकार सांप भी मर जाता है और लाठी भी नहीं टूटती।
परंतु हमारे देश के विरोध प्रदर्शंन,चक्का जाम या तालाबंदी किस हद तक जाती है यह भी हम सभी प्राय: देखते व सुनते रहते हैं। फैक्ट्री हो या परिवहन व्यवस्था या रेलगाड़ियां या रेल पटरियां। हमारे देश के 'बहादुर' प्रदर्शनकारी तथा उनको मिलने वाला 'राष्ट्रभक्तों का जुझारू नेतृत्व' तो गोया देश की इन संपत्तियों को तोड़ने फोड़ने तथा इन्हें अगि् की भेंट करने में कुछ अधिक राहत एवं संतुष्टि महसूस करता है। प्राय: यह भी देखा गया है कि ऐसे जाम व प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाले नेता ऐसे विरोध प्रदर्शन का प्रयोग अपने राजनैतिक भविष्य हेतु एक 'अवसर' के रूप में करने से नहीं हिचकिचाते। वे ऐसे अवसरों की तलाश में रहते हैं कि उन्हें भीड़ के समक्ष अपनी आक्रामकता प्रदर्शित करने तथा जनता के प्रति हमदर्दी दिखाते हुए प्रशासन के विरुद्ध अपने तेवर दिखाने का मौंका मिले। यदि ऐसे जाम के परिणामस्वरूप किसी नेता की गिरफ्तारी हो जाए फिर तो मानों उस नेता की 'लाटरी' ही खुल गई। क्योंकि हमारे देश की राजनीति में गिरफ्तार होने या जेल जाने को 'शहादत' के मरतबे तक पहुंचने की श्रेणी में रखा गया है। अर्थात् जो नेता जितनी बार जेल गया गोया वह उतनी ही बार 'शहीद' हुआ। ंजाहिर है यही कथित 'शहीद'भारतीय लोकतंत्र में शीघ्र ही 'हीरो' के मुंकाम तक पहुंच जाता है। इसी प्रकार की घटना अभी कुछ दिन पूर्व अंबाला छावनी में देखी गई जबकि यातायात जाम करने के आरोप में पुलिस प्रशासन द्वारा भारतीय जनता पार्टी के विधायक अनिल विज को गिरफ्तार कर लिया गया था। ख़बर यह है कि विधायक महोदय स्वयं अपनी गिरफ्तारी हेतु इच्छुक थे। आख़िरकार प्रशासन को उनकी यह इच्छा पूरी करनी पड़ी तथा वे 6 घंटे के जाम के आरोपी होने के बावजूद एक 'हीरो' के रूप में जेल जाते हुए दिखाई दिए। कहा जा रहा है कि अनिल विज की इस गिरफ्तारी ने न केवल उनका राजनैतिक क़द उनके हल्क़े में ऊंचा कर दिया बल्कि भारतीय जनता पार्टी में भी नवांगतुक होने के बावजूद उन्होंने अपनी शानदार प्रविष्टि दर्ज कराई। कोई आश्चर्य नहीें कि भारतीय जनता पार्टी अनिल विज को उनके इस आक्रामक तेवर,उनकी इस 'क़ुर्बानी' व 'शहादत' के बदले में उन्हें किसी उचित पुरस्कार से नवांजे। और यह पुरस्कार भारतीय जनता पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष की कुर्सी भी हो सकती है।
बहरहाल भारतीय राजनीति का यह 'विशेष अंदाज' हमारे देश की राजनैतिक व्यवस्था में अपनी जड़ें गहरी कर चुका है। मुटठी भर लोगों को साथ लेकर देश की यातायात,परिवहन,रेलव्यवस्था अथवा कल कारख़ानों को रोक देना संभवत: भारतीय राजनीति मे भाग ले रहे ऐसे नेताआें की नियति में शामिल हो चुका हैे। इनका भी जवाब भारतीय मतदाताओं के पास ही है। जनता सर्वप्रथम यह महसूस करे कि चक्का जाम की राजनीति आम आदमी के लिए लाभदायक है या देश के विकास के लिए बाधक? उसके बाद ऐसी गतिविधियों में शामिल नेताओं से भारतीय लोकतंत्र के चुनावी महापर्व में अपना हिसाब-किताब चुकता करे। जनता यह महसूस करे कि देश की अर्थव्यवस्था को नुंकसान पहुंचाने वाला नेता वास्तव में 'हीरो' या 'शहीद' नहीं बल्कि वह भी देश के विकास का दुश्मन मात्र है। राष्ट्रभक्त या राष्ट्रहितैषी ंकतई नहीं।
निर्मल रानी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें