ग्राम यात्रा-1: चम्बल के गाँवों में जान लेवा है भूख, कुपोषण और बीमारी, मरे सैकड़ों बिन भोजन बिन इलाज और दवा के - सरकारी दावे सरासर झूठ
ग्राम यात्रा
ऑंखों देखी विशेष रपट भाग-1
नरेन्द्र सिंह तोमर ''आनन्द''
लेखक ने इस आलेख को लिखने से पूर्व कई गाँवों और ग्राम पंचायतों में रह कर रूक कर सब कुछ ऑंखों से देखा है
यू तो अब काम की व्यस्तता से गाँवों की ओर जाना कम ही हो पाता है, लेकिन सरकारी बिजली कटौती की विशेष कृपा और अपनी ताई के निधन के कारण फिर एक अन्तराल बाद मुझे अपने गाँव जाना पड़ा !
मेरी ताईयों व ताऊओं की संख्या काफी लम्बी है, चूंकि कुटुम्ब व परिवार बड़ा है तो संख्या लम्बी ही होनी है ! किसी जमाने में हमारे इन ताऊ का आसपास के एरिया में बड़ा चलताड़ा था, उनके नाम की तूती बोलती थी और पत्ते भी उनके हुकुम से हिला करते थे !
समय चक्र के चलते गरीबी और लाचारी के साथ मजबूरीयों ने उन्हें कमजोर भी कर दिया और ताई के शोक में शामिल होने जब मैं अपने माता पिता और परिवार के साथ गाँव पहुँचा कुछ हैरत अंगेज व दिल व दिमाग को झकझाोर देने वाली बातों ने मेरे अंतस को हिला दिया !
अपने काम के वक्त में मैंने शायद हजारों गरीबों या मजबूरों की मदद की होगी लेंकिन अपने ही परिवार में घटी इस घटना और उसका पृष्ठ वृतान्त सुन कर मेरा हृदय काँप गया ! हालांकि मुझे यह सब वृतान्त कई कारण्ाों से पता नहीं लग पाया, और मैं सोचता रहा कि सारे शासन और प्रशासन को पता है कि मेरा गाँव कहाँ है, और वहाँ सब वैसे ही ठीक ठाक आटोमेटिक ही चल रहा होगा ! इसलिये अत्यधिक निश्चिन्तता और लापरवाही के साथ उदासीनता भी मैंने अपने गाँव और गाँव पंचायत के प्रति बरती !
लेकिन अपनी ताई (गरीब ताई ) की मृत्यु की पूरी दास्तान मैंने सुनी तो न केवल मैं चौंक गया बल्कि मुझे स्वत: ही अन्य लोगों की चिन्ता और परेशानी ने घेर लिया मैंने फिर सारे अपने कार्य छोड़ कर, गाँव और निवासीयों तथा आसपास के गाँवों की पड़ताल और खैर खबर लेना ही उचित समझा !
हालांकि सबसे सब प्रकार की बातें हुयीं, दुख तकलीफ, परेशानीयों की भी सरकारी व्यवस्थाओं और उसके फर्जीवाड़े की करम कहानी ऑंखों देखी, बिजली के हालात वहाँ रहकर वहीं देखे और महसूस किये, छोटी बातों से लेकर बड़ी बातों तक सब पर चर्चायें और विचार विमर्श हुये, राजनीतिक बाते भी हुयीं यानि कुल मिला कर सम्पूर्ण और समग्र यात्रा मेरी स्वर्गवासी ताई ने करवा दी, सबसे मिलवा दिया और सब कुछ ताजा करवा दिया ! सारी स्मृतियां तरोताजा कर ग्राम और पंचायत वासीयों के लिये उम्मीद के कई दिये जल गये, वे सदा ही मुझसे कुछ अधिक ही उम्मीदेंं रखते आये हैं ! सबने सब कुछ खुल कर कहा ! मैं उन साौभाग्यशालीयों में हूँ जिसे अपने गाँ, कुटुम्ब, परिवार और पंचायत का विशेष आशीष व स्नेह आजीवन प्राप्त होता रहा है, लेकिन अबकी बार मुझे स्वयं ही पर क्रोध आया कि पूरे साल डेढ़ साल बाद गाँव का चक्कर मारा, तब तक वहाँ बहुत कुछ उलट पुलट हो चुका था ! यद्यपि गाँव से सप्ताह या दो सप्ताह में कोई न कोई चक्कर मार ही जाता है, और मैं हल्की फुल्की खैर खबर लेकर अपने काम में जुटा रहता हूँ, अव्वल तो बिजली न रहने का भय रहता है, फिर फटाफट बहुत काम निपटा डालने की जल्दी सो मामूली खैरियत के बाद आगे अधिक चर्चा नहीं करने की इस आदत पर मुझे काफी रंज महसूस हुआ !
खैर किस्सा यूं हैं कि, ताई का निधन (हालांकि वे वृध्द थीं) गरीबी, भूख और बीमारी से हो गया !
मरते मरते ताई भूखीं मर गयीं, न भोजन न पानी ! बीमारी ने जान ली, इलाज चिकित्सा और दवायें नहीं मिलीं ! कई दिन लाचार बीमार और मजबूरी के चलते अभावों में ही तड़प तड़प कर ताई के प्राण निकल गये !
मेरे गाँव से ठीक चार खेत दूर यानि एक दो फर्लांग भर की दूरी पर निकट के ही गाँव में लगभग 30-35 साल पुराना प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र है, और अम्बाह तहसील नामक शहर की दूरी 4 किलो मीटर है यानि सवा कोस की दूरी पर है ! गाँव से लगभग आधा किलोमीटर दूर पहुँच मार्ग यानि पक्की सड़क भी है ! और गाँव में पढ़े लिखे लगभग सभी है यानि 90 फीसदी हैं !
गाँव के अन्य हालात तो इस रपट आलेख के अगले भागों में जिक्र में खुद ब खुद आयेंगें लेकिन खास बात ये है कि गाँव में असल बेहद गरीब परिवार लगभग 60 फीसदी है, और गरीबी रेखा में असल में अंकित परिवार केवल पाँच फीसदी हैं ! गरीबों के पास गरीबी रेखा में नाम लिखाने को पैसे नहीं हैं इसलिये न उनके नाम गरीबी रेखा में हैं, न और न सरकार उन्हें गरीब मानती है, वस्तुत: न उनके पास पहनने को कपड़े हैं, न खाने को रोटी और न रहने को मकान न इलाज या दवा के लिये पैसे !
ताई स्वर्गवासी होकर कई सवाल छोड़ गई, कई यक्ष प्रश्न दे गयी ! ताई की मौत एक किस्सा न बन कर रह जाये, अफसानों में खो न जाये इससे पहले ही ताई कई कथाओं को भी अपने अन्दर समेट ले गयी !
ताई की कहानी में मुंशी प्रेमचन्द की बूढ़ी काकी नामक कहानी की काकी या ताई भी शामिल है तो बागवान फिल्म के अमिताभ बच्चन और हेमामालिनी के बंटवारे का किस्सा भी शामिल है !
और सबसे बड़ी कहानी जो ताई छोड़ गयी वह सरकार की सच्चाई को चीख चीख कर बता गयी ! गरीबी, बीमारी, लाचारी, ग्रामीण जिन्दगी तथा जीवन मृत्यु के दरम्यां झेलते भारतीय जीवन और गाँवों में वृध्दों की दशा एवं खोखले सरकारी तमाशे का रंगमंच दिखा गयी !
इसके बाद कई ताईयों और ताऊओं से मिला, लगभग सबकी एक ही कहानी बस एक सी ही जिन्दगी और एक सी लाचारी, एक सी बीमारी, एक सा दुख ! कहीं कुछ भी फर्क नहीं , बस ताई चली गयी और वे अपने जाने की बाट जोह रहे हैं, न सरकार से उम्मीद न कोई शिकवा, मुकद्दर के लेख को ही सरकार माने बैठे लोगों को यह पता ही नहीं कि उन्हें क्या मदद कहाँ से और कैसे मिल सकती है, अधिकारी बने बैठे लोकसेवकों से सेवा कैसे ले सकते हैं ! शिकायत किसकी और कहाँ कर सकते हैं !
संयोगवश यूं ही अपनी आदत के चलते मैं कुछ सरकारी किताबें '' आगे आयें लाभ उठायें'' इस किताब में सरकारी योजनायें और उनसे फायदे उठाने के तरीके दिये हैं, और म.प्र. में शिवराज सिंह द्वारा अब तक आयोजित विभिन्न पंचायतों का विवरण देने वाली किताबों की पाँच छह प्रतियां यह सोच कर ले गया था, कि जो भी जरूरतमन्द होंगें मैं उनमें यह किताबे बाँट दूंगा !
लेकिन किताबों को देखते ही वहाँ मारामार शुरू हो गयी किताबे कम थीं और जरूरतमन्द ज्यादा सो सब उलझ पड़े कि यह उसे मिल जायें ! मैं उलझन में था कि ऐसी अवस्था में क्या किया जाये, फिर मैंने वैकल्पिक व्यवस्था कि भई कुछ लोग जो सबसे ज्यादा जरूरत मन्द हैं और जो दूसरों को भी रास्ता बतायें तथा दूसरों का भी भला करते हों वे लोग एक एक किताब ले लो ! बाद बकाया को मैं जब फिर आऊंगा तो सबको दूंगा ! अगर ऐसे बाँटी जाये ंतो दस बीस हजार किताबे तो अकेले मेरी पंचायत में ही बँट जायेंगीं और मेरे पास थीं ही कुल दस दस किताबे उनमें से आधी मैं पहले ही कहीं और दूसरे गाँव वालों को बाँट आया था, बची हुयी इधर ले आया था ! जैसे तैसे किसी को पंचायतों की किसी को आगे आये लाभ उठायें दे कर बकाया आश्वासन देकर मैंने अपना पिण्ड छुटाया !
लोग किताबे देख कर आश्चर्यचकित थे, उनमें लिखीं योजनाओं और जानकारीयों को पढ़ जान कर विस्फारित थे (बात केवल आठ दिन पुरानी है) ! उन्हें अभी तक पता ही नहीं था कि कौनसी योजनायें सरकार चला रही है, और उनसे कैसे फायदा उठाया जाता है ! सरकार क्या क्या उनके हित के फैसले ले रही है, क्याा क्या घोषणायें कर रही हैं ! अब जब उन्हें बुनियादी जानकारी ही नहीं है, तो सोचने वाली बात है कि फिर वे फायदा कैसे उठा सकते हैं, कैसे उसकी मानीटरिंग कर सकते हैं ! कैसा लोकतंत्र, कैसा आम आदमी का राज कैसी गरीब की सरकार ?
गाँव में अखबार आजादी के 62 साल गुजरने के बाद भी आज तक नहीं पहुँचते, गाँव तो छोड़िये, ग्राम पंचायत तक नहीं पहुँचते ! गाँवों में बिजली है ही नहीं सो टी.वी कबाड़खानों या भुस रखने की जगह यानि भुसेरों में पड़ें चूहों के बिल में तब्दील हो गये हैं यानि गांवों में अब टी.वी नहीं देखा जाता ! अब बताओं कि संचार व सूचना से शून्य होकर सत्ररहवीं अठारहवीं शताब्दी के इन गाँव को को विकास की परिभाषा और आयाम आज तक छू ही नहीं सके !
गाँव वाले बताते हैं सूचना का अधिकार कभी किसी के मुँह सुना तो हैं पर पता नहीं ये क्या होता है, हमें नहीं पता इसका क्या फायदा है, हमें नहीं मालुम हमारी पंचायत में कौनसी योजनायें चल रहीं हैं, पंच और सरपंचों को भी नहीं मालुम , वे भी कुछ नहीं बताते ! क्या हमारे गाँव में भी सूचना का अधिकार चलता है, चलता है तो यह क्या होता है इसमें कितना अनुदान मिलता है, भैंस के लिये मिलता है कि बीज के लिये ! क्या सूचना का अधिकार योजना हमारी पंचायत में भी चलती है, चलती है तो इसका फार्म कैसे भरेगा और कित्ते पैसे मिलेंगें ! वगैरह वगैरह !
मैंने पूछा रोजगार गारण्टी योजना कैसी चल रही है ? गाँव वाले बोले ये कहाँ चलती है, दिल्ली या भोपाल में होगी ! जाको झां कितऊं अतो पतो नानें (इसका यहाँ कोई अता पता नहीं है) मैंने कहा अरे भई किसी के जॉब कार्ड तो बने होंगें, किसी को रोजगार तो मिला होगा ! गाँव वाले बोले जब झाां चलिई नाने रई तो का बतामें (जब यहाँ चल ही नहीं रही तो फिर क्या बतायें) मैंने कहा कि पंचायत सचिव आपको कुछ नहीं बताता, कोई आपके यहां सर्वे करने नहीं आया !
ग्रामीणों ने उत्तर दिया कि सेकेटटरी भजाय देतु हैं (सेक्रेट्री भगा देता है) झां कैसीऊ कोऊ वर्वे फर्वे नाने भई, भईअऊ होगी तो वैंसेई फर्जी भलेईं कर लई होगी के फिर जिनने (कुछ लोगों के नाम लेते हैं) फर्जी लिखवाय डारें होंगें जेई सारे दलाल हैं सिग गाम को पैसा मिल जुल के खाय जातें !
मैंने पूछा कि रोजगार गारण्टी का कोई काम यहाँ चल रहा है क्या ? या कभी चला है क्या ? ग्रामीणों ने कहा नानें झां ना कभऊं चलो ना चल रहो !
क्रमश: अगले अंक में जारी .........