पूरी तरह ध्वस्त हुआ सूचना का अधिकार कानून, खामियों ने किया कमजोर और प्रभावहीन
नरेन्द्र सिंह तोमर ''आनन्द''
सूचना का अधिकार 2005- एक सिंहावलोकन भाग -7 (वर्ष सन 2005 से जारी आलेख)
- नहीं मिलती आवेदकों को सूचना, तमाम विसंगतियां और सूराखों से मनमाने होते हैं निराकरण
- धारा 4 का तीन साल बाद आज तक पालन नहीं किया किसी ने, सरकारी कार्यालयों के अलावा स्वयंसेवी संस्थाओं ने बलाए ताक धरा कानून
पिछले अंक से आगे .......
अक्टूबर 2005 में जब भारत में सूचना का अधिकार अधिनियम लागू हुआ तो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही भ्रष्टाचार, अनसुनेपन, मनमानेपन से त्रस्त लोगों को इससे काफी उम्मीद और आशा की किरणें जागीं, और जैसा कि इस कानून की मंशा को इसी कानून में लिखा गया कि यह पारदर्शिता लाने और भारत को भ्रष्टाचारमुक्त बनाने का ब्रह्मास्त्र साधन हो ।
कानून को सफलतापूर्वक सॅपादित करने हेतु इसके कुछ प्रारंभिक एवं कुछ प्रक्रियात्मक उपाय भी इस कानून में निर्धारित किये गये थे । कुल मिला कर कानून को क्रियान्वित व लागू किये जाने के लिये विशिष्ट व सकारात्मक प्रक्रिया अवधारित की गयी थी । जहॉं यह भारत का पहला ऐसा अधिनियम था जो जनता को सीधे सीधे सूचना प्राप्ति तथा उसके उपयोग किये जाने की केवल स्वतंत्रता ही नहीं देता था बल्कि इसके पश्चात अन्य कानूनी व प्रशासनिक तथा सार्वजनिक उपायों के जरिये हस्तक्षेप का पश्चातवर्ती अधिकार भी मुहैया कराता था ।
भारत में लम्बे अर्से से भ्रष्टाचार व अंधेरगर्दी की मलाई मार रहे अफसर इतना अधिक काला पीला नीला हरा किये बैठे हैं कि वे इस कानून के लागू होने के दिनांक 12 अक्टूबर 2005 से ही इससे अन्दरूनी दुश्मनी मान बैठे थे और हर हाल में शुरू से ही ठान कर बैठे थे कि इस कानून की न केवल धज्जियां ही उड़ानी हैं बल्कि इसे पूरी तरह असफल भी करना है । कानून लागू होने के दिन से ही उनका पुरजोर विरोध स्वत: ही चालू हो गया था, ठीक बिल्कुल उसी तरह जैसे इलेक्ट्रिकल इंजीनियर में लेन्ज का नियम होता है या न्यूटन का भौतिक शास्त्र का तीसरा नियम जिसे प्रतिक्रिया का नियम कहते हैं ।
इन राष्ट्र विरोधी तत्वों या अफसर वर्ग ने और उनके बाबू वर्गीय चेलों ने शुरू से ही न केवल हरेक को बरगलाना शुरू किया बल्कि अफवाह भी जम कर फैलायीं कि कुछ नहीं यह कानून तो पूरी तरह फेल हो चुका है और जल्दी ही इसे वापस लिया जा रहा है, या इसमें संशोधन किया जा रहा है वगैरह वगैरह .... मैंने इस प्रकार की कई अनर्गल बातें स्वयं कई जगह सुनीं । मुझे बड़ी कोफ्त होती थी और तकलीफ भी कि कल संभव है इन्हें खुद ही इसी कानून का सहारा लेना पड़ जाये और यही जो इस कानून को अवमंदित या भोंथरा करने की कोशिश जी तोड़ कर रहे हैं, खुद ही इसका इस्तेमाल करने लायक नहीं रहेंगे ।
इस कानून को ऐन दशहरे के दिन लागू किया गया था सो हिन्दू मान्यता के अनुसार इस त्यौहार के दिन दसों दिशायें चौकस खुलतीं हैं और इस दिन हुआ कार्य प्रत्येक दशा में पूर्ण सफल होता ही है ।
मैंने अब तक सूचना का अधिकार सम्बन्धी करीब डेढ़ दो हजार मामले हैण्डल किये और हर मामले का गहराई से अध्ययन करने का भी सुअवसर मुझे मिला ।
मुझे यह लिखने में कोई संकोच नहीं कि जनता का यह अमोध अस्त्र या अचूक हथियार आज न केवल दिशा से भटक कर दिशाहीन हो गया बल्कि इस कानून की शुरूआती ढांचागत खामियां इस अधिनियम के अवलंघन कारीयों के लिये न केवल वरदान सिद्ध हुयीं अपितु इस कानून की मंशा को पूरी तरह खत्म कर राष्ट्र विरोधी अवलंघनकारीयों की मंशा की गुलाम मात्र बनकर रह गयीं ।
शुरूआत में जब किसी महात्वाकांक्षी और दीर्घकालीय प्रभावक कानून की अवधारणा स्थापित की जाती है तो उसमें ढांचागत व अनुभवगत प्रक्रियात्मक दोषों का होना स्वाभाविक है किन्तु लम्बे अनुभव के बाद उन्हें निरन्तर रखा जाना तो त्रुटि नहीं बल्कि जानबूझ कर किया गया अपराध बन जाती है । इस कानून को स्थापित किये जाने और प्रचलन में लाये जाने तक जो विसंगतियां और खामियां थीं, यदि वक्त वक्त पर उनका सिंहावलोकन कर उन्हें ठीक किया जाता रहता तो इतने ताकतवर कानून की यह दुर्दशा और दुर्गति नहीं होती ।
अभी हाल ही में शीर्ष न्यायालय तक ने इस कमजोर अधिनियम का तीखा उपहास बना दिया, मामले ने एकसी विसंगतियों की स्थिति उत्पन्न कर दी कि गोया अब अधिनियम नहीं अल्कि अधिनियम से शासित व्यक्ति तय करेगा कि अधिनियम उस पर लागू है कि नहीं । खैर इसमें शीर्ष अदालत का अहम्मन्यतापूर्ण व्यवहार रहा हो या अधिनियम की अपने हिसाब से व्याख्या करने की कवायद, जो भी रहा हो देश में इसका संदेश कतई अच्छा नहीं गया । और इस अधिनियम की बची खुची दुर्गति हो गयी सो अलग । ऐसी अपमान जनक परिस्थितियों में जनता का कानून कहे जाने वाले इस अधिनियम को तो वापस ले लिया जायेगा तो बेहतर होगा, कम से कम जनता का झूठा भ्रम या आस तो टूटेंगे ।
क्रमश: जारी अगले अंक में ..............
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