मंगलवार, 25 मार्च 2008

वरिष्ठ नागरिकों के लिए आयुर्वेद

वरिष्ठ नागरिकों के लिए आयुर्वे

21वीं सदी में जीवन की संभाव्यता धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। कुछ दशक पहले विश्वभर में रूग्णता और मौत के खिलाफ संघर्ष में संचारी रोगों के उपचार और रोकथाम पर अधिक ध्यान दिया जा रहा था। किंतु, आज गैर-संचारी रोगों के उन्मूलन पर अधिक जोर दिया जा रहा है। वरिष्ठ नागरकिों में मृत्यु के प्रमुख कारणों में श्वसन संबंधी समस्याएं, हृदय रोग, कैंसर और पक्षाघात जैसी बीमारियां शामिल हैं। इस आयु-समूह के व्यक्तियों में रूग्णता के प्रमुख कारणों में क्रोनिक इन्फ्लेमेट्टी (पुरानी सूजन) और डीजेनरेटिव (विकृति) स्थितियां शामिल हैं, जैसे अर्थराइटिसद्व, मधुमेह, ऑस्टिओपोरोसिस (अस्थि रोग), अल्जेमर रोग, डिप्रेशन, मनश्चिकित्सीय विकृतियां (साइकिएट्रिक डिस्ऑडर्स), पार्किसन्स और आयु संबंधी मूत्र रोग।

जरा-चिकित्सा समस्या के समाधान में सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ज्यादातर मामलों में रोग-स्थिति का केवल एक कारण नहीं होता अथवा कुछ न्यूरो-साइकिएट्रिक विकृतियों, जैसे सेनाइल डेमेंटिया, अल्जेमर डिप्रेशन में बुनियादी संरचनागत कारण का पता नहीं चलता। ऐसे मामलों में परंपरागत चिकित्सा (मेडिकल) पध्दति उपचार योजना में विफल रहती है। परंपरागत चिकित्ससा पध्दति के समक्ष एक अन्य चुनौती यह रहती है कि इसमें स्वास्थ्य को प्रोत्साहन देने वाले एजेंटों (तत्तवों) का अभाव रहता है। दूसरी ओर आयुर्वेद में चवनप्रास, त्रिफला जैसी दवाएं हैं, जो शारीरिक प्रक्रियाओं को बढ़ावा देती हैं, जिनसे मेटोबोलिक और रोगप्रतिरक्षण स्थिति पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। ये दवाएं जरा-चिकित्सा के संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

रसायन उपचार पध्दति

आयुर्वेद के अंतर्गत रसायन उपचार पध्दति एक ऐसा प्रतिबव्ध्द उपाय है, जो रोगप्रतिरक्षण क्षमता को बढ़ाता है तथा विकृतिमूलक और पुन:स्फूर्तिदायक स्वास्थ्य देखभाल में मददगार है। यह पध्दति बढ़ती उम्र के दुष्प्रभावों को रोकने में सक्षम है और साथ ही स्वस्थ एवं रूग्ण, दोनों ही व्यक्ितियों के स्वास्थ्य में सुधार लाती है। वैज्ञानिक अध्ययनों से जीवन शैली संबंधी पुरानी बीमारियों और विकृतिजन्य परिवर्तों के प्रबंधन में रसायन उपचार की भूमिका की प्रभावोत्पादकता प्रमाणित की जा चुकी है।

विकृतिजन्य रोग पुरूषों और महिलाओं दोनों में ही 45 वर्ष की आयु से प्रांरभ होते हैं। इसी अवस्था में रसायन के सेवन की सलाह दी जाती है। आयुर्वेद जैसी समग्र प्रणाली में इस अवस्था में दो-तरफा पध्दतियों से उपचार का प्रयास किया जाता है। पहली पध्दति में अतिवादी दृष्टिकोण अपनाया जाता है, जिसमें कुटिप्रवीशिका रसायन के नाम से विख्यात तीन-चार महीने की कड़ी एवं सुनियोजित प्रक्रिया के माध्यम से शरीर से विषाक्त तत्वों को निष्कासित करके समूची मैटोबोलिक प्रक्रिया (चयापचय प्रणाली) को पुनर्भरित किया जाता है। इस पध्दति में शारीरिक प्रक्रिया की जटिलताओं को देखते हुए, इसका इस्तेमाल कभी नहीं किया जाता। इसमें चिकित्सक की कड़ी देख-रेख और उपचार के वातावरण की भी अहम भूमिका होती है। इस तरह कुटिप्रवीशिका आयुर्वेद का सैध्दांतिक रत्न मात्र है और समसामयिक व्यवहारिक प्रक्रिया में वह प्रासंगिक नहीं लगती है।

आयुर्वेद की दूसरी पध्दति, जो आज अत्यन्त लोकप्रिय है, वातातपिका रसायन है-जिसका प्रयोग रोजमर्रा के जीवन में किया जा सकता है। इस तरह के रसायन आज के परिदृश्य में विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि उनके प्रयोग में आसानी रहती है और किसी प्रकार की प्रतिबंधात्मक पूर्व-शर्तें नहीं है।

रसायन के प्रभावों का उल्लेख करते हुए, आयुर्वेद के शास्त्रीय ग्रंथों में बताया गया है कि रसायन से व्यक्ति को दीर्धायु, परिष्कृत सामंजस्य और बुध्दि प्राप्त करने, विकृतियों से मुक्ति, यौवन पूर्ण उत्साह, जीजीविषा, रूप-रंग और अवाज, अनुकूलतम शारीरिक और बौध्दिक शक्ति, भाषा पर अधिकार, प्रतिष्ठा एवं उत्कृष्ठत जैसी उपलब्धियां हासिल होती हैं। आयुर्वेद में यह माना गया है कि शरीर की संरचना सात धातुओं से मिलकर हुई है, जिसकी शुरूआत रस (रसादि धातुएं) से हाती है और रसायन वह उपकरण है जो प्रमुख धातुओं (शरीर ऊतकों) का निर्माण करते हैं। रसायन पध्दति की प्रमुख उपयोगिता यह है कि यह कार्यात्मक एवं पुरानी या दीर्धावधि से चली आ रही विकृतियों को दूर करती है। वास्तव में ऐसे मामलों में रसायन किसी भी चिकित्सा पध्दति के प्रभावकारी प्रबंधन के लिए एकमात्रा समाधान है। यदि उपयुक्त पंचकर्म (पवित्रीकरण चिकित्सा पध्दति) अपनाने के बाद रसायन पध्दति अपनायी जाती है तो अधिक उपयोगी और अधिक असरदार सिध्द होती है। इसका कारण यह है कि रसायन के उपयोग के कई मामलों में मिल-जुले नतीजे सामने आते हैं। उनमें पवित्रीकरण पध्दति या तो अपनायी नही जाती अथवा अनुपयुक्त ढंग से अपायी जाती है।

पंचकर्म

पंचकर्म एक जैनिक-स्वच्छता प्रणाली है, जिसमें पांच प्रमुख प्रक्रियाएं शामिल हैं, जिन्हें अंजाम देने से औषध-वैज्ञानिक (फार्मा कालॉजिकल) चिकित्सा पध्दतियों की बेहतर जैव-उपलब्धता में मदद मिलती है, बीमारी पैदा करने वाली जटिलताएं शरीर से दूर होती हैं और बीमारी के पुन: जन्म लेने या बढ़ने पर अंकुश लगता है। इस चिकित्सा पध्दति की पांच प्रक्रियाएं इस प्रकार है: वामन (थरपेटिक एमेसिस), विरेचन (थरपेटिक पर्गेशन), अस्थापन वस्ति (थरपेटिक ऑयल एनिमा), नास्य कर्म (नाक से औषधि लेना)।

पंचकर्म प्रक्रियाओं से स्नेहाना (थरप्यूटिक ऑलिएशन) और स्वेदाना (सूडेशन) जैसे अनुप्रयोग किए जाते हैं ताकि शरीर प्रणाली को बॉयो-टॉक्सिन (जैविक विषाक्तता) की समाप्ति और सरणियों की सफाई के लिए तैयार किया जा सके। ये अनुप्रयोग स्वत: प्रतिरक्षण, न्यूरोलॉजिकल, साइकिएट्रिक और पुराने तथा मेटाबोलिक मूल के मस्कुलो-स्केलेटल रोग के उपचार में कारगर सिध्द होते हैं।

वास्तव में आर्युवेद का उपचार व्यक्तिगत किस्म का है और यह संभव है कि किसी स्थिति में व्यक्ति विशेष के लिए उपयोगी समझी गयी चिकित्सा अन्य व्यक्ति के मामले में उतनी कारगर सिध्द न हो। अत: चुनौती यह है कि किसी एक स्थिति के लिए सामान्यकृत प्रबंधन समाधान विकसित किए जायें, जो सभी के अनुकूल हो। किसी रोग स्थिति के लिए प्रबंधन योजनाएं तैयार करना और उसे बड़े पैमाने पर अमल में लाना अत्यंत कठिन कार्य है। महत्वपूर्ण बात यह है कि हम परंपरागत चिकित्सा की समग्रता और आधुनिक बॉयोमेडिसन के एकांगीपन दोनों का सम्मान करें क्योंकि वे दोनों ही प्रकृति को देखने के तरीके हैं। प्रयोजन के अनुसार ये दोनों तरीके अत्यंत उपयोगी हो सकते हैं। इतना ही नहीं सम्पूर्ण और अंश के बीच निश्चित रूप से सम्बन्ध होता है। लेकिन वह आमने-सामने का सम्बन्ध नहीं है।

यह समझने के लिए कि सम्बन्ध आमने-सामने का नहीं है और यह अध्ययन करने के लिए कि सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य (यानी आयुर्वेद एवं योग के व्यवस्थित सिध्दांतों) के साथ आंशिक (यानी पश्चिमी बॉयो मेडिसिन के संरचनागत सिध्दांतों) को कैसे जोड़ा जाये, आवश्यकता इस बात की है कि अंतर-विषय अनुसंधान परियोजनाओं को लागू किया जाये। आज शैक्षिक जगत में किसी के पास भी सभी सवालों के उत्तर नहीं है कि किस तरह अंश को सम्पूर्ण के साथ संयुक्त और सम्बध्द बनाया जाये। क्लिनिकल अनुसंधान डिजाइन, क्लिनिकल प्रैक्टिस, आयुर्वेद और योग सम्बन्धी पाठयक्रमों, औषधि विज्ञान में प्रयोगशाला अनुसंधान और उत्पाद विकास जैसे संदर्भों में दोनों पध्दतियों के संयुक्त अध्ययन और समुदाय आधारित स्थानीय स्वास्थ्य पध्दतियों के मूल्यांकन की आवश्यकता है।

वर्ष 2050 तक विश्व में वरिष्ठ नागरिकों की संख्या अधिक होगी। 65 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्ति विश्व की आबादी का पांचवा हिस्सा होंगे। भारत में आबादी का 3.8 प्रतिशत हिस्सा 65 वर्ष से अधिक आयु का है। एक अनुमान के अनुसार 2016 तक भारत में वरिष्ठ नागरिक करीब 11 करोड़ 30 लाख के आसपास होंगे।

आयुर्वेद के माध्यम से जराचिकित्सा के सम-सामयिक अनुप्रयोग में सबसे बड़ी चुनौती लिखित समझौते तैयार करने, एकीकृत ढांचे की पहचान करने और जराचिकित्सा की ऐसी समस्याओं का समाधान करने की होगी, जिनके लिए अत्याधुनिक अनुसंधान, उपचार और शिक्षण केन्द्रों में महत्वपूर्ण निवेश अपेक्षित होगा। इन संस्थानों में जराचिकित्सा के लिए अत्याधुनिक सुविधाएं होंगी। यह उनिवार्य है कि बहुआयामी उपायों पर विचार किया जाये जो क) अंतरविषयी अनुसंधान, ख) अत्याधुनिक उपचार केन्द्रों और ग) विशेषज्ञतापूर्ण स्नातकोत्तर शिक्षा पर बल दे सकें। देश में ऐसे केन्द्र स्थापित करने की तत्काल आवश्यकता है जो आयुर्वेद को वैश्विक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए अंतरविषयी अनुसंधान में संलग्न हों और आयुर्वेद की उपचारात्मक सेवाओं को मुख्य धारा में ला सकें। ऐसे अनुसंधान के लिए उदार वित्त व्यवस्था आवश्यक होगी और साथ ही ऐसे केन्द्र स्थापित करने होंगे जो प्रभावकारी उपचारात्मक सेवाएं प्रदान कर सकें। जराचिकित्सा से सम्बध्द स्नातकोत्तर अध्ययन केन्द्रों में विशेषज्ञतापूर्ण अंतरविषयी स्नातकोत्तर अनुसंधानकर्ताओं को सहायता देने की आवश्यकता होगी।

'''

स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय भारत सरकार से मिली जानकारी पर आधारित

 

कोई टिप्पणी नहीं: