मंगलवार, 27 नवंबर 2007

सफलता का मूल मंत्र है - समय पर नियंत्रण

सफलता का मूल मंत्र है - समय पर नियंत्रण

नरेन्‍द्र सिंह तोमर 'आनन्‍द'

 

आपने एक पुराना हिन्‍दी गीत सुना होगा 'समय तू धीरे धीरे चल, सारी दुनिया छोड़ के पीछे आगे जाऊँ निकल' यह पंक्तियां महज एक हिन्‍दी फिल्‍म का मनोरंजन व चित्‍त को सुख देने वाला गाना ही नहीं बल्कि समय प्रबंधन जिसे अंग्रेजी में टाइम मैनेजमेण्‍ट कहते हैं पर एक सर्वोत्‍तम सारोक्ति है । हिन्‍दी फिल्‍म संगीत में प्रेरणास्‍पद गीतों की भरमार है, अच्‍छे गीत चुनिये उन्‍हें सुनिये और अवसाद व निराशावाद से तुरन्‍त बाहर आ जाइये । वाकई करिश्‍मा होता है । मैं वर्ष 1979 से स्‍वयं ऐसा करता रहा हूँ , मुझे न केवल चित्‍त शान्ति प्राप्‍त हो जाती है, बल्कि एक नई जीवटता के साथ पुन: एक नई सक्रिय व सशक्‍त शुरूआत की शक्ति प्राप्‍त होती है ।

मैंने ज्‍योतिष तंत्र मंत्र व यंत्रों पर काफी काम किया है अत: ध्‍वनि व उसके विलक्षण गुणों व उपयोग से भली भांति सुपरिचित हूँ, यह संयोग ही है कि मैं विज्ञान और प्रौद्योगिकी का छात्र भी रहा हूँ और स्‍नातकोत्‍तर में भौतिक शास्‍त्र मेरा विषय रहा वहीं इंजीनियरिंग में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग मेरे विषय रहे अत: ध्‍वनि विज्ञान को काफी नजदीक से जानने का सुअवसर मुझे मिला ।

मंत्रों में ध्‍वनि के विशिष्‍ट गुणों का उपयोग कर करिश्‍में किये जाते हैं, शब्‍दों, अक्षरों व वाक्‍यों के समुचित समायोजन और सप्रवाहन को ही मंत्रमय किया जाता है, चाहे उसके लिये भाषा कोई भी प्रयोग क्‍यों न की जाये । उचित अक्षर, शब्‍द या वाक्‍य चयन के उपरान्‍त उसकी आवृत्ति, तारत्‍व एवं आयाम तय कर लिये जाते हैं । इसके बाद गुंजन और कम्‍पन का उचित समायोजन किसी भी वाक्‍य या शब्‍द को मंत्र बना देता है और फिर वह काम करने लगता है, अपना असर करने लगता है । हालांकि इस पर पूरा एक ग्रंथ लिखा जा सकता है किन्‍तु इस आलेख की विषय वस्‍तु न होने से इस पर अधिक उल्‍लेख उचित न होगा ।

आजकल के नौजवानों और किशोरों के समक्ष समय प्रबंधन सबसे बड़ी समस्‍या और चुनौती है । समय नियंत्रण एवं समय प्रबंधन की अकुशलता के कारण अनेक बार उनको उनके परिश्रम के अनुरूप परिणाम प्राप्‍त नहीं होते और काफी मेहनत के बाद भी उनके श्रम का यथोचित मूल्‍य न प्राप्‍त होने से वे या तो पलायनवादी हो उठते हैं या फिर निराशावादी । अच्‍छे भारत के निर्माण के लिये यह लक्षण ठीक नहीं हैं । किशोरों और युवाओं का दुर्भाग्‍य है कि उन्‍हें वर्तमान में लगभग सभी विषयों पर और सभी प्रकार की शिक्षा एवं प्रशिक्षण उपलब्‍ध है लेकिन मनौवैज्ञानिक, दार्शनिक सिद्धांतों व व्‍यावहारिक जीवन विज्ञान की शिक्षा आज तक अनुपलब्‍ध है । अत: कई बार देखने में आता है कि अनेक प्रतिभाशाली, मेधावी और सर्वोच्‍च सफलता प्राप्‍त अनेक किशोर व नौजवान अवसाद और नैराश्‍य के शिकार हो जाते हैं । जिसे अंग्रेजी भाषा में फ्रस्‍ट्रेशन कहते हैं । कई बार यह परिणिति काफी दुखद भी होती है ।

किशोरों और नौजवानों का असमय मृत्‍यु का आहवान यानि आत्‍महत्‍या की ओर प्रवृत्‍त होना, नशे पत्‍ते की लत पड़ना, या फिर मनोवैज्ञानिक बीमारीयों से ग्रसित होकर अपराध की ओर उन्‍मुख हो जाना, या उनकी रचनात्‍मक शक्तियों का विध्‍वंसकारी हो उठना आदि कतिपय ऐसी बातें हैं जिनमें दरअसल विकृत्‍त मनोवृत्तियों के उदगम और विकास के पीछे वे किशोर और युवा कतई दोषी नहीं होते बल्कि हमारा सामाजिक व राष्‍ट्रीय परिवेश ही इसका प्रमुख कारण होता है । ओर हम अपने पीडि़त किशोरो और नौजवानों को उस हद तक पतन के गर्त में जाने का इंतजार करते हैं जब उसे मानसिक आरोग्‍यशाला और जेल (तथाकथित सुधारगृह) या अस्‍पताल में भर्ती कराने लायक नहीं बना लेते ।

दरअसल सच यह है कि ज्ञात रोग के उत्‍पन्‍न होने से पूर्व ही उसका निवारण संभव था, लेकिन हमारी मूर्खता व अज्ञानतावश कभी कभी अविवेकवश हम उसे नजर अंदाज करते चले जाते हैं और अंतत: अपने कीमती किशोरों और नौजवानों को पतन के अंतिम व लाइलाज गर्त तक पहुँचा कर उसे तथाकथत विभिन्‍न सुधारगृहों व चिकित्सालयों की शरण में छोड़ कर संतुष्‍ट हो लेते हैं ।

मैं एक उदाहरण देता हूँ- फिल्‍म अभिनेता संजयदत्‍त का उदाहरण देखिये और एक मुकम्‍मल शेर भी याद कीजिये लम्‍हों ने की खता और सदियों ने सजा पाई है संजयदत्‍त ने तब क्‍या किया यह अदालत का विषय है लेकिन लोग जानते हैं कि बाद में वह सुधर गया, केवल सुधर ही नहीं गया बल्कि नेकनीयत और आदर्श इंसान बन गया, फिर भी उसे सजा हो गयी । अब सवाल यह है कि भूले चूके अगर किसी से गलती या अपराध हो जाये और फिर वह पश्‍चाताप कर सुधरने के पथ पर चल कर आदर्श बनने का प्रयास करे तो हमें उसे हतोत्‍साहित करना चाहिये या प्रोत्‍साहित । संजयदत्‍त के उदाहरण के बाद भारत में अब कितने लोग सुधरना चाहेंगें और दोबारा अपराध या गलती न करने की सौगंध खायेंगें । जब सजा मिलनी ही है और सुधरने के सुफल प्राप्‍त नहीं होने हैं तो कोई क्‍यों एक बार अपराध का आरोप लगने के बाद अपराध की पुनरावृत्ति से दूर भागेगा । केवल न्‍यायिक संतुष्टि के लिये ऐसे फैसले एक बहुत बड़े भारतीय किशोर व नौजवानों के समूह के लिये दुखद उदाहरण बन कर प्रस्‍तुत हुये हैं, अब यदि किसी पर गलत आरोप भी एक बार लगा तो वह सुधरने का प्रयास तो कतई नहीं करेगा बल्कि अपराध की दललदली दुनिया में डूब ही जायेगा । इस घटनाक्रम में साथ ही संदेश यह भी गया कि संजयदत्‍त तो बड़ा आदमी था और पैसा भी उसके पास था, सो कैसे न कैसे वह सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया और जैसे तैसे बाहर निकल आया, लेकिन भारत के औसत परिवार और प्रति व्‍यक्ति औसत आय का आंकड़ा जरा सामने रखकर सोचिये कि कितने लोग हैं जो हाईकोर्ट तक भी पहुँच पाते हैं । सरकार भले ही सस्‍ते सुगम और सहज सुलभ न्‍याय की बात करती रहे हकीकत यही है कि आम आदमी की तो जिला न्‍यायालयों में ही मुकदमे लड़ते लड़ते घर मड़ैया सब बिक जाते हैं, आशियाने की बात छोडि़ये बर्तन भांड़े भी हिल्‍ले लग जाते हैं । हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट भारत के आम आदमी के लिये स्‍वप्‍न मात्र ही हैं । वहॉं तक पहुंचना टेढ़ी खीर है, सच तो यही है । अब जिला अदालते गलत फैसले कर दें तो भी भारत का आम आदमी झेलता ही है, मैंने कई ऐसे मामले देखे कि जिस अपराध में लोग जेल में बन्‍द किये गये उसमें सजा बमुश्‍िकल छ महीने या एक साल की अधिकतम थी किन्‍तु वे दो साल या तीन साल तक या अधिक समय तक जेलों में सड़ रहे थे । मगर लाचार थे ।

न्‍यायायिक सुधारों की बात पर भी पूरा एक ग्रंथ ही तैयार हो जायेगा, लेकिन फिर वही विषय से भटकने की बात हो जायेगी ।

आज के किशोरो और नौजवानों को समय प्रबन्‍ध या समय पर नियंत्रण स्‍थापित करना जहॉं उनकी स्‍वयं की सफलता के लिये आवश्‍यक है, वहीं राष्‍ट्र के सर्वांगीण व सर्वआयामी विकास के लिये भी नितान्‍त जरूरी है ।

 

क्रमश: जारी अगले अंक में ........        

 

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