बुधवार, 14 अप्रैल 2010

आलेख - चंदेरी: ऑल इज़ वेल, आमिर के बहाने करवट लेता वस्त्रोद्योग -श्रीमती राजबाला अरोरा

आलेख - चंदेरी: ऑल इज़ वेल, आमिर के बहाने करवट लेता वस्त्रोद्योग -श्रीमती राजबाला अरोरा

दियों से साड़ी का भारतीय संस्कृति से चोली दामन का साथ रहा है । साड़ी ही है, जो पूरे भारत में उपयोग में लाया जाने वाला विभिन्न रूपों, रंगों व डिजाइनों में उपलब्ध पारम्परिक परिधान है। जब भी साड़ियों की बात हो तो चंदेरी साड़ियो का जिक्र न हो, ऐसा हो ही नही सकता । अब तो फिल्मी हस्तियाँ व माडल भी चन्देरी साड़ियों को पहन कर रैंप पर जलवे बिखेरती नजर आती हैं । विश्व प्रसिध्द चंदेरी साड़ियां आज भी हथकरघे पर बुनी जाती हैं । जिनका अपना ही एक समृध्दशाली इतिहास रहा है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि चंदेरी हथकरघा वस्त्रोद्योग को बुलंदियों तक पहुँचाने वाले बुनकर कलाकार आज आर्थिक विसंगतियों का दंश झेल रहे हैं । ऐसे में ठंडी हवा के झौंके की तरह 'ऑल इज़ वेल' वाले  फिल्म अभिनेता आमिर खान ने चंदेरी आकर बुनकरों को उत्साहित किया है । सुखद बात है कि आज आमिर के बहाने ही सही चंदेरी हथकरघा बस्त्रोद्योग फिर से चर्चा में है ।

       दरअसल दो साल पहले योजना आयोग ने बुनकरों की आर्थिक स्थिति को देखते हुए कई कल्याण कारी कदम उठाने का फैसला लिया था । आयोग ने अन्य उत्पादों की भाँति हथकरघा वस्त्रोद्योग को बढ़ावा देने एवं उसके प्रचार प्रसार के लिए सेलिब्रिटी का सहारा लेने का निर्णय लिया । इसी तारतम्य में आयोग की सदस्या सैयदा हमीद ने आमिर खान से सम्पर्क किया, ताकि मशहूर चंदेरी वस्त्रों की तरफ दुनिया का ध्यान आकर्षित किया जा सके।  सैयदा हमीद की यह कोशिश रंग लाई । आमिर खान अभिनेत्री करीना के साथ अपनी फिल्म ''थ्री इडियट्स'' की पब्लिसिटी के लिए म.प्र. में अशोक नगर जिले के चंदेरी नगर जा पहुँचे । वहाँ एक बुनकर के घर में उन्होनें हथकरघे पर शटल चलाकर कपड़ा बुना । बाद में बुनकर द्वारा उस कपड़े को पूरा किया गया । फिर मुम्बई में ''थ्री इडियट्स'' के प्रोमो के दौरान फिल्मी हस्तियों ने उन वस्त्रों को धारण कर चन्देरी की कलाकारी का  प्रदर्शन भी किया ।

       यूँ तो चंदेरी का पारंम्परिक वस्त्रोद्योग काफी पुराना है । प्राचीन काल से ही राजाश्रय मिलने के कारण इसे राजसी लिबास माना जाता रहा है । राजा महाराजा,नवाब, अमीर, जागीरदार व दरबारी चंदेरी के वस्त्र पहन कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते थे । मुगलकालीन मआसिरे ''आलमगीरी'' के अनुसार 13 वीं -14 वीं ईसवी में चंदेरी का परम्परागत हथकरघा वस्त्रोद्योग अपने चरम पर था । तब वहाँ गुणवत्ता की दृष्टि से उच्च श्रेणी के सूती कपड़े बुने जाते थे । 1857 में सैनिक अधिकारी रहे आर.सी. स्टर्नडैल ने चंदेरी के वस्त्रों का बखान करते हुए लिखा है कि चंदेरी में बहुत ही उम्दा किस्म की महीन और नफीस मलमल तैयार की जाती थी, जिसमें 250 से 300 काउण्ट्स के धागों से  बुनाई होती थी, जिसकी तुलना ढाका की मलमल से की जाती थी ।

       एक जनश्रुति के अनुसार मुस्लिम संत निजामुद्दीन औलिया ने अपने कुछ बंगाली मुरीदों को जो कुशल बुनकर थे, अलाउद्दीन खिलजी के प्रकोप से बचाने के लिए चंदेरी भेज दिया था। बाद में उनमें से कई  अपने वतन लौट गये, लेकिन जो बचे, वे वहीं ढाका जैसी मलमल बनाने लगे । सोने की ज़रदोजी के काम की वजह से चंदेरी की साड़ियां अन्य क्षेत्र की साड़ियों से श्रेष्ठ मानी जाती थीं । इन पर मोहक मीनाकारी व अड्डेदार पटेला । (अलंकृत कटवर्क ) का काम भी किया जाता था । वस्त्रों में रेशम, कतान, सूत, मर्सराइज्ड, विभिन्न रंगों की जरी एवं  चमकीले तार का प्रयोग किया जाता था ।

       प्राचीन काल में चंदेरी वस्त्रों का उपयोग साड़ी, साफे दुपट्टे, लुगड़ा, दुदामि, पर्दे व हाथी के हौदों के पर्दे आदि बनाने में किया जाता था, जिसमें अमूमन मुस्लिम मोमिन व कतिया  और हिन्दू कोरी बुनाई के दक्ष कारीगर थे । उन्हें यह कला विरासत में मिली थी । धागों की कताई रंगाई से लेकर साड़ियों की बुनाई का कार्य वे स्वयं करते थे ।

       नाजुक व पारदर्शी होना ही चन्देरी के  कपड़ों की खासियत थी । कहते हैं कि एक बार चंदेरी से मुगल बादशाह अकबर को बाँस के खोल में बंद कपड़ा भेजा गया । उस कपड़े को जब बाँस के खोल से बाहर निकाला तो उससे पूरा हाथी ही ढंक गया । वीर बुंदेला शासक तो पगड़ियां भी चंदेरी में बने कपड़े की पहनते थे । उनके शासन काल में पारम्परिक चंदेरी वस्त्रों की गुणवत्ता की परख उस पर लगी शाही मुहर, जिसमें ताज एवं ताज के दोनों ओर खड़े शेर अंकित होते थे, से की जाती थी । कालांतर में चंदेरी वस्त्रों पर बादल महल दरवाजे की मुहर लगाई जाने लगी । बुनकरों की कला का जादू प्राचीन काल से लेकर आज तक धनाढय व उच्च मध्यम वर्ग के दिलों पर आज भी राज कर रहा है । आज भारत में चंदेरी वस्त्रों की अपनी विशिष्ट पहचान है । ''अशर्फी बूटी'' के नाम से विख्यात चंदेरी वस्त्रों की देश ही नहीं विदेशों में भी धूम है । भारत में चंदेरी में बने वस्त्रों को नक्कालों से बचाने की मुहिम में जी.आई. (जियोग्राफिकल इंडिकेशन) मानक से संरक्षित किया जा रहा है । डब्ल्यू. टी. ओ. (वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन) का सदस्य होने के नाते वर्ष 1999 में पारित  रजिस्ट्रेशन एंड प्रोटेक्शन एक्ट के तहत भारत ने भी जी.आई. मानक को मान्यता दी है ।

       कपड़ों की नफासत व नजाकत मुझे सदैव चंदेरी के वस्त्रों के प्रति आकर्षित करती रही। माँ की संदूक में रखी बनारसी सिल्क, कांजीवरम, व तनछुई साड़ियों के बीच सहेजकर रखी चंदेरी साड़ी का कोमल एहसास मेरी उत्सुकता को लगातार बढ़ाता रहा । मन में सदा प्रश्न उठते रहे कि कैसे बनते होंगे इतने सुंदर और महीन कपड़े ? पिछले साल जब मेरे पतिदेव का चंदेरी दौरे पर जाने का कार्यक्रम बना, तो मैं भी चंदेरी को पास से देखने का लोभ संवरण न कर सकी और चल पड़ी उनके साथ म.प्र. की प्राचीन व चेदिवंश के राजा शिशुपाल की नगरी चंदेरी की यात्रा पर ।

       चंदेरी मूलत: बुनकरों की नगरी है । विंध्याचल की पहाड़ियों के मध्य बेतवा नदी के किनारे बसा छोटा सा शहर है । सरकारी आंकड़ो की माने तो यहाँ की आबादी का साठ प्रतिशत हथकरघे के बुनकर व्यवसाय से जुड़ा है । ऐतिहासिक दृष्टि से समृध्दता व वैभव से परिपूर्ण चंदेरी की गौरवगाथा भी कम रोचक नहीं है । चंदेरी के महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थलों को देखने के पश्चात घूमते-घूमते जब हम एक बुनकर के घर पहुँचे तो वास्तविकता को कल्पना से कहीं भिन्न पाया । वहाँ हमने छोटे से कमरे में पसीने से लथपथ एक व्यक्ति को देखा, जो बल्ब की मध्दिम रोशनी में हथकरघे पर बैठकर साड़ी बुन रहा था । यह वही व्यक्ति था, जिसे कुछ अरसा पूर्व परम्परागत चंदेरी के कुशल कारीगर के रूप में राष्ट्रपति सम्मान से नवाजा गया था। उसका नाम है श्री तुलसीराम । तुलसीराम का परिवार चंदेरी का एकमात्र ऐसा परिवार है, जहाँ उसके माता-पिता अब भी वस्त्र बुनाई का अति प्राचीन 'नालफेरमा करघा' उपयोग में लाते  हैं । तुलसीराम के बूढ़े माता पिता की आयु 90 वर्ष पार कर चुकी है। हमने उन्हें नालफेरमा करघे पर बिना चश्मे के रंगीन धागों के शटल को ताने से गुजार कर तत्परता से थोड़ी ही देर में साड़ी की सुंदर बूटी व किनारी निकालते देखा, जो  कम काबिले तारीफ नहीं है। श्री तुलसी राम ने हमें बताया कि उत्कृष्ट मोटिफयुक्त एक साड़ी तैयार करने में कई हफ्ते लग जाते हैं, जिसका मेहनताना मात्र दो हजार ही मिल पाता है । कच्चे माल की निरंतर बढ़ती कीमतों और मुनाफाखोर बिचौलियों के कारण आज परम्परागत लूम बंद होते जा रहे हैं ।

       चन्देरी में अब नए मैकेनिकल तेजी से बुनाई करने वाले लूम प्रचलन में आ चुके हैं । परिवर्तन के इस दौर में बुनाई के तौर तरीकों, औजारों, तकनीक एवं सूत के संयोजन में बहुत बदलाव आया है । सन् 1890 तक इस उद्योग में हाथ कते सूत का उपयोग होता था अब मजबूती की दृष्टि से मिल के धागों ने इसका स्थान ले लिया है । सिंधिया शासकों द्वारा चंदेरी के बुनकरों को आर्थिक सुदृढ़ता प्रदान करने हेतु सन् 1910 में टेक्सटाइल ट्रेनिंग सेंटर स्थापित कर चंदेरी की कला को संरक्षित करने का प्रयास किया गया । वर्ष 1925 में सर्वप्रथम नवीन तकनीक के माध्यम से बार्डर के साथ -साथ जरी का उपयोग बूटी बनाने में किया जाने लगा । वर्ष 1940 में पहली बार सूत की जगह रेशम का उपयोग हुआ ।

       पूर्व में दो बुनकरों द्वारा हस्तचलित थ्रो शटल पध्दति वाले नालफेरमा करघे का स्थान अब फ्लाई शटल पध्दति वाले लूम ने ले लिया, जिसमें एक ही बुनकर अपने हाथ व पैरों से करघे को संचालित करता है । इस प्रकार पूर्व में जहाँ पुरानी पध्दति थ्रो शटल पध्दति (नाल फेरमा)में एक ही करघे पर दो बुनकरों को लगाया जाता था, वहीं फ्लाई शटल पध्दति से अकेला बुनकर करघे को संचालित करने लगा । साथ ही नई प्रणाली में जैकार्ड एवं डाबी के उपयोग से बार्डर भी आसानी से बनाया जाने लगा है। चंदेरी साड़ियों में रंगो का प्रयोग 50 वर्ष से ज्यादा पुराना नहीं है । पूर्व में चंदेरी साड़ियाँ केवल बिना रंगों वाली सूत से तैयार की जाती थी । शनै: - शनै: साड़ी के सफेद बेस पर रंगीन बार्डर बनाया जाने लगा । प्रारंभ में फूलों से प्राप्त प्राकृतिक रंगो का ही इस्तेमाल किया जाता था, जिसमें केवल बुने कपड़े ही रंगे जाते थे । आज अधिकांश बुनकर बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए पक्के रासायनिक रंगों का प्रयोग कर रहे हैं।

       सूचना प्रौद्योगिकी के बढ़ते प्रभाव के फलस्वरूप कम्प्यूटर द्वारा नाना प्रकार की ज्यामितीय डिजाईन व उनका विभिन्न प्रकार से संयोजन ने राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय बाजार की मांग बढ़ा दी है, जिसके प्रभाव स्वरूप चंदेरी साड़ियों में भी विविधता देखी जा सकती है । जहाँ कभी चंदेरी में केवल हाथ कते सूती धागों से ही काम किया जाता था, वहीं अब मजबूती व सुंदरता के लिहाज से मिल के सूती धागों के साथ - साथ रेशम का भी खूब उपयोग किया जाने लगा है । बाजार की मांग को देखते हुए अब कुछ कुछ बनारसी पैटर्न का प्रभाव भी चंदेरी साड़ियों में परिलक्षित होने लगा है । ताने एवं बाने में सिल्क का प्रयोग कर बनारसी, तनछुई जैसा भारी एवं कीमती कपड़ा भी अब यहाँ तैयार किया जाने लगा है ।

       वर्ष 2008 - 2009 में किए गये सरकारी सर्वे के अनुसार चंदेरी में सहकारी व गैरसहकारी क्षेत्रों में हथकरघों की संख्या 3924 थीै जिनमें से 3572 करघे चालू अवस्था में पाये गये । इन करघों से लगभग 10716लोगों को  रोजगार मिल रहा हैं। चंदेरी में हथकरघा वस्त्रोद्योग के क्षेत्र में कार्य कर रहे स्वसहायता समूहों, सहकारी समितियों, स्वयं सेवी संगठनों की संख्या 93 है जिनमें 56  मास्टर वीवर्स हैं । तब इस व्यवसाय का सालाना टर्न ओवर  22 करोड़ रूपये आंका गया था 

       योजना आयोग की अनुशंसा पर भारत सरकार ने चंदेरी हथकरघा वस्त्रोद्योग के विकास हेतु लगभग पच्चीस  करोड़ रूपये की परियोजना को मंजूरी दी है । इस परियोजना के तहत म.प्र. सरकार ने 4.19 हेक्टेयर भूमि प्रदान की है । परियोजना में  आवास कार्यशाला पहुँच मार्गो का निर्माण किया जावेगा ।  पीने का पानी व व्यवसाय के लिए पर्याप्त पानी के लिए राजघाट बांध से 11.5 किलोमीटर लम्बी पाइप लाइन बिछाई जावेगी । साथ ही कच्चे माल के लिए बैंक स्थापित करना व मार्केटिंग आदि जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी म.प्र. सरकार द्वारा वित्तीय सहायता प्रदान की जा रही है ।

       काल चक्र तेजी से घूम रहा है । बदजुबान शिशुपाल के कदाचरण से शापित नगरी चंदेरी के शाप मुक्ति का समय आ चुका है । परिवर्तन के इस दौर मे चंदेरी के बुनकर तथा अन्य व्यवसायों में जुटे उद्यमी नई पहचान के फलस्वरूप अपने प्राचीन वैभव, समृध्दि और संपन्नता को पुन: हासिल करेंगे । आमिर के बहाने ही सही अब देश और विदेश का नव धनाढय वर्ग चंदेरी की तरफ फिर से आकर्षित होने लगा है । कई साल पहले म.प्र. सरकार ने दिल्ली के पांच सितारा होटल 'ताज' में चंदेरी वस्त्रों से बने परिधानों पर केन्द्रित फैशन शो कर अपने दायित्व की इतिश्री मान ली थी । अब आमिर खान के मुम्बई चंदेरी शो के बाद म.प्र. सरकार को चाहिए कि वो देश के अन्य मेट्रोपोलिटन टाउन तथा विदेशों में चंदेरी फैशन शो आयोजित करे ताकि चंदेरी की शोहरत और समृध्दि को वापस लाया जा सके ।

इति।

आलेख -श्रीमती राजबाला अरोरा,

ग्वालियर

 

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