शुक्रवार, 28 सितंबर 2007

वैज्ञानिक प्रमाण का मोहताज नहीं है राम का अस्तित्व

वैज्ञानिक प्रमाण का मोहताज नहीं है राम का अस्तित्व

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तमिलनाडू के मुख्यमंत्री तथा डी एम के प्रमुख एम करुणानिधि ने पिछले दिनों राम के अस्तित्व को चुनौती देकर देश की राजनीति में कोहराम बरपा कर दिया है। अभी इस विषय पर बहस व मंथन चल ही रहा है कि रामसेतु को खंडित कर सेतु समुद्रम परियोजना पूरी की जानी चाहिए अथवा नहीं, इस परियोजना को लागू किए जाने का ंजिम्मेदार कौन है और कौन नहीं तथा इस परियोजना के लागू करने में किसी ऐसे नए मार्ग का चुनाव किया जा सकता है जोकि रामसेतु को खंडित किए बिना सेतु समुद्रम परियोजना को पूरा करने में सहायक सिद्ध हो सके। कि इसी बीच आम भारतीयों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला राम के अस्तित्व संबंधी बयान देकर बुंजुर्ग द्रविड़ नेता करुणानिधि ने गोया ठहरे हुए पानी में पत्थर मारने जैसा काम कर दिखाया है। यदि करुणानिधि अपने सबसे पहले दिए गए इस बयान पर भी ंखामोश रह जाते कि रामसेतु के मानव निर्मित होने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। यदि वे अपने इस बयान को वापस ले लेते अथवा इससे आगे बढ़ते हुए जलती हुई आग में घी डालने जैसा काम न करते तो भी कांफी हद तक मामला सुलझ सकता था। परन्तु करुणानिधि ने न केवल उक्त बयान दिया बल्कि इसके बाद उन्होंने भगवान राम के अस्तित्व में आने को भी यह कहकर चुनौती दे डाली कि भगवान राम के होने के कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं हैं। करुणानिधि के इस बयान ने भारतीय रामभक्तों की भावनाओं को तो ठेस पहुंचाई ही है, साथ-साथ उन्होंने भगवान राम को रजनीति का मोहरा बनाने वालों को भी इसी बहाने अपना नाम चमकाने का अवसर प्रदान कर दिया है।

             जिस प्रकार मुस्लिम समुदाय की ओर से कई बार ऐसे ंफतवे सुनाई देते थे कि ईश निंदा किए जाने के कारण अथवा हंजरत मोहम्मद का अपमान किए जाने के कारण जो भी अमुक व्यक्ति का सिर क़लम करेगा, उसे भारी भरकम पुरस्कार से नवांजा जाएगा। ठीक उसी प्रकार पहली बार हिन्दू समाज की ओर से एक राजनैतिक संत द्वारा करुणानिधि का सिर कलम करने वाले व्यक्ति को सोने से तोले जाने का ंफतवा जारी किया गया है। इसमें कोई शक नहीं कि करुणानिधि ने भगवान राम के अस्तित्व को चुनौती देकर अति निंदनीय कार्य किया है। उनके इस वक्तव्य के चलते कई प्रमुख लोगों द्वारा उन्हें दक्षिण भारत में रहने वाला रावण का वंशज तक कहकर सम्बोधित किया जा रहा है। यह सब कुछ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किया जा रहा है। जैसा कि वामपंथी नेता प्रकाश करात का मानना है कि 'इस देश में कुछ लोग ऐसे हैं जिनकी धार्मिक आस्थाएं हैं। वहीं कुछ लोग हमारी तरह भी हैं, अर्थात् जो धर्म के प्रति आस्थावान नहीं है। ऐसे लोगों को अपनी राय प्रकट करने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।' निश्चित रूप से करात का यह कथन भी बिल्कुल सही प्रतीत होता है। परन्तु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विषय को यदि हम इस कथन के साथ तोलें तो मामला सांफ हो जाता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संबंधी एक उदाहरण के अनुसार किसी भी व्यक्ति को हवा में अपनी छड़ी घुमाने की इजांजत तो ंजरूर है परन्तु उसी सीमा के भीतर जहां से कि उसकी अपनी हद समाप्त होती है तथा दूसरे की हद शुरु होती है। इस कथन से यह बात सांफ हो जाती है कि किसी व्यक्ति को अपने विचार रखने का अधिकार तो है परन्तु किसी के दिल दुखाने का या किसी की आस्था या विश्वास को ठेस पहुंचाने का अधिकार हरगिंज नहीं है।

             भगवान राम के अस्तित्व की बात लाखों वर्ष पुरानी है। हंजारों वर्षों से शास्त्रों तथा धार्मिक ग्रन्थों के माध्यम से राम कथा के बारे में न केवल भारतवर्ष बल्कि पूरे विश्व में चर्चा होती  रही है। दीपावली, दशहरा व राम नवमी जैसे भारत में मनाए जाने वाले कई त्यौहार भगवान राम के अस्तित्व से जुड़े हैं तथा हंजारों वर्षों से भारत में मनाए जा रहे हैं। वैसे तो हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी देवताओं का ंजिक्र किया गया है परन्तु इन सभी में भगवान राम को ही मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से सम्बोधित किया जाता है। यदि राम का अस्तित्व नहीं था तो सहस्त्राब्दियों से भगवान राम संबंधी उल्लेख शास्त्रों में क्योंकर दर्ज हैं? हिन्दू समाज आंखिर क्योंकर दीपावली व दशहरा जैसे त्यौहार मनाकर राम की पूजा व अराधना करता चला आ रहा है।

              रहा प्रश्‍न वैज्ञानिक प्रमाण होने या न होने का तो करुणानिधि जी तो लाखों वर्ष प्राचीन उस घटना के प्रमाण पूछ रहे हैं जोकि सीधे तौर पर भारतवासियों विशेषकर हिन्दू समाज की भावनाओं तथा विश्वास से जुड़ चुकी है। देश की सबसे बड़ी तीर्थनगरी अयोध्या आज भी राम के नाम से ही जोड़कर देखी जाती है। यदि यह प्रमाण भी करुणानिधि को अपर्याप्त महसूस होते हों तो भी उन्हें विचलित होने की अधिक आवश्यकता इसलिए नहीं होनी चाहिए कि आज के वैज्ञानिक एवं आधुनिक दौर में तमाम ऐसी घटनाएं घटित होती हैं जिनके कि कोई प्रमाण नहीं होते। इसका अर्थ यह तो ंकतई नहीं हुआ कि अमुक घटना घटी ही नहीं। उदाहरण के तौर पर आज भी अनेक लोगों की हत्याएं होती हैं। मामले पुलिस और अदालत तक जाते हैं। मुंकद्दमा भी चलता है तथा सभी आरोपी बरी भी हो जाते हैं। अर्थात् आज की अति आधुनिक समझी जाने वाली प्रशासनिक व न्यायिक व्यवस्था इस बात को प्रमाणित करने में असहाय नंजर आती है कि अमुक व्यक्ति की हत्या किसने की। तो क्या इससे यह निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए कि जब कोई हत्यारा प्रमाणित ही नहीं हो सका तो गोया अमुक व्यक्ति की हत्या ही नहीं हुई। तात्पर्य यह है कि आधुनिकता का दम भरने वाले इस दौर में आज भी जब हम ऐसी तमाम बातों को प्रमाणित नहीं कर सकते तो ऐसे में लाखों वर्ष पुरानी घटना के विषय में प्रमाण की तलाश करना वैज्ञानिक सोच तो नहीं हास्यास्पद एवं नकारात्मक सोच का लक्षण अवश्य कहा जा सकता है।

              करुणानिधि के बयान को सीधे-सीधे केवल राम के अस्तित्व के प्रश् तक ही सीमित रखकर नहीं सोचना चाहिए। उनके इस बयान के पीछे दक्षिण भारत व उत्तर भारत के बीच की वह पारंपरिक नकारात्मक सोच भी परिलक्षित होती है जो अन्य कई स्वरों के रूप में भी विभिन्न दक्षिण भारतीय नेताओं के मुंह से कभी-कभार सुनाई देती है। परन्तु हमें उन विवादों में जाने से कोई लाभ नहीं। मोटे तौर पर हमें यही समझना होगा कि हमारी मातृभाषा व राष्ट्रभाषा का सबसे अधिक विरोध सदैव इन्हीं द्रविड़ व तमिल भाषी क्षेत्रों में किया जाता रहा है। ऐसा भी सुना जाता है कि दक्षिण भारत के इन्हीं राज्यों में कहीं-कहीं रावण की भी पूजा की जाती है। इस क्षेत्र के कुछ इतिहासकार यह भी लिखते हैं कि भगवान राम द्वारा स्रूपनखा की नाक काटने की घटना उत्तर भारत के उच्च जाति के एक राजा द्वारा दक्षिण की एक महिला का किया गया अपमान मात्र था।

              बहरहाल इस विशाल धर्म निरपेक्ष भारत में जबकि हम सभी धर्मों व सम्प्रदायों के लोगों को साथ लेकर चलने का दम भरते हैं तथा दुनिया को यह बताते हुए हम नहीं थकते कि अनेकता में एकता की जो मिसाल हमारे देश में देखी जा सकती है वह और कहीं नहीं मिलती। ऐसे में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के अस्तित्व को लेकर हिन्दू धर्म के भीतर छिड़ा आपसी घमासान ही धर्म निरपेक्षता के सभी दावों को मुंह चिढ़ाता है। अत: बेशक करुणानिधि या किसी भी धर्म एवं सम्प्रदाय का कोई अन्य व्यक्ति किसी समुदाय के ईष्ट के प्रति अपनी आस्था रखे या न रखे नि:सन्देह यह उसका अत्यन्त निजी मामला है व उसका अपना अधिकार भी, परन्तु किसी समुदाय के ईष्ट के अस्तित्व को ही चुनौती दे डालने का अधिकार किसी को भी नहीं होना चाहिए। बेहतर होगा कि करुणानिधि भारतीय समाज से अपने विवादित वक्तव्य के लिए क्षमा मांग कर इस मामले पर यहीं विराम लगा दें।

 

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